Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
[प्रज्ञापनासूत्र]
[३५ से छूटने वाला लोभ का परिणाम । प्रत्याख्यानावरण लोभ - काजल के रंग के समान इस लोभ के परिणाम कुछ प्रयत्न से छूटते हैं । संज्वलन लोभ - सहज ही छूटने वाले हल्दी के रंग के समान इस लोभ के परिणाम होते हैं।
नोकषायवेदनीय - जो कषाय तो न हो, किन्तु कषाय के उदय के साथ जिसका उदय होता है, अथवा कषायों को उत्तेजित करने में सहायक हो। जो स्त्रीवेद आदि नोकषाय के रूप में वेदा जाता है, वह नोकषायवेदनीय है। नोकषायवेदनीय के ९ भेद हैं -
स्त्रीवेद - जिस कर्म के उदय से पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा हो। पुरुषवेद - जिस कर्म के उदय से स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा हो। नपुंसकवेद - जिस कर्म के उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ रमण करने की इच्छा हो। इन तीनों वेदों की कामवासना क्रमशः करीषाग्नि (उपले की आग), तृणाग्नि और नगरदाह के समान होती है। हास्य - जिस कर्म के उदय से कारणवश या बिना कारण के हंसी आती है या दूसरों को हंसाया जाता हो। रति-अरति - जिस कर्म के उदय से सकारण या अकारण पदार्थों के प्रति राग- प्रीति या द्वेष - अप्रीति उत्पन्न हो। शोक - जिस कर्म के उदय से सकारण या अकारण शोक हो। भय - जिस कर्म के उदय से कारणवशात् या बिना कारण सात भयों में से किसी प्रकार का भय उत्पन्न हो। जुगुप्सा - जिस कर्म के उदय से वीभत्स-घृणाजनक पदार्थों को देख कर घृणा पैदा होती है।'
आयुकर्म : स्वरूप, प्रकार और विशेषार्थ - जिस कर्म के उदय से जीव देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारक के रूप में जीता है और जिसका क्षय होने पर उन रूपों का त्याग कर मर जाता है, उसे आयुकर्म कहते हैं । आयुकर्म के चार भेद हैं, जो मूलपाठ में अंकित हैं। आयुकर्म का स्वभाव कारागार के समान है। जैसे अपराधी को छूटने की इच्छा होने पर भी अवधि पूरी हुए बिना कारागार से छुटकारा नहीं मिलता, इसी प्रकार आयुकर्म के कारण जीव को निश्चित अवधि तक नरकादि गतियों में रहना पड़ता है। बांधी हुई आयु भोग लेने पर ही उस शरीर से छुटकारा मिलता है। आयुकर्म का कार्य जीव को सुख-दुःख देना नहीं है, अपितु नियत अवधि तक किसी एक शरीर में बनाये रखने का है। इसका स्वभाव हडि (खोडा-बेड़ी) के समान है।'
नामकर्म : स्वरूप, प्रकार और लक्षण – जिस कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति प्राप्त करके अच्छी-बुरी विविध पर्यायें प्राप्त करता है अथवा जिस कर्म से आत्मा गति आदि नाना पर्यायों का अनुभव १. (क) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भाग ५, पृ. २४३ से २५१ तक
(ख) कर्मग्रन्थ भाग-१ (मरुधरकेसरीव्याख्या) पृ. ५५-७०, ८१ से ९३ (i) कम्मं कसो भवो वा कसमातोसिं कसायातो।
कसमाययंति व जंतो गमयंति कसं कसायत्ति॥ - विशेपावश्यकभाष्य-१२२७ (ii) अनन्तानुबन्धी सम्यग्दर्शनोपघाती। तस्योदयाद्धि सम्यग्दर्शनं नोत्पद्यते। पूर्वोत्पन्नमपि च प्रतिपतति।
संज्वलनकपायोदयाद्यथाख्यातचारित्रलाभो न भवति। -तत्त्वार्थसूत्र भाष्य, अ.८ सू. १० (iii) कपाय-सहवर्तित्वात् कपाय-प्रेरणादपि।
हास्यादिनवकस्योक्ता नो-कपाय-कपायता॥१॥-कर्मग्रन्थ, भा. १, पृ. ८४ २. (क) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५, पृ. २५१
(ख) कर्मग्रन्थ, भा. १ (मरुधरकेसरीव्याख्या), पृ. ९४