Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद]
एकेन्द्रिय जीवों में ज्ञानावरणीयादि कर्मों की बंधस्थिति की प्ररूपणा
१७०५. एगिंदिया णं भंते! जीवा णाणावरणिजस्स कम्मस्स किं बंधति ?
गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमस्स तिण्णि सत्तभागे पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति? |
[१७०५ प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म कितने काल का बांधते हैं ?
[१७०५ उ.] गौतम! वे जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवयें भाग कम सागरोपम के ३/७ भाग का बन्ध करते हैं और उत्कृष्टतः पूरे सागरोपम के ३/७ भाग का बन्ध करते है।
१७०६. एवं णिहापंचकस्स वि दंसणचउक्कस्स वि ।
[१७०६] इसी प्रकार निद्रापंचक और दर्शनचतुष्क का (जघन्य और उत्कृष्ट) बन्ध भी ज्ञानावरणीयपंचक के समान जानना चाहिए ।
१७०७. [१] एगिंदिया णं भंते! जीवा सातावेयणिजस्स कम्मस्स किं बंधंति ?
गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमस्स दिवड्ढं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति।
[१७०७-१ प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव सातावेदनीयकर्म कितने काल का बांधते हैं ?
[१७०७-१ उ.] गौतम! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के " भाग का और उत्कृष्ट पूरे सागरोपम के भाग का बन्ध करते हैं।
१७०७. [२] असायावेयणिजस्स जहा णाणावरणिजस्स (सु. १७०५)। [१७०७-२] असातावेदनीय का (जघन्य और उत्कृष्ट) बन्ध ज्ञानावरणीय के समान जानना चाहिए। १७०८. [१] एगिदिया णं भंते! जीवा सम्मत्तवेयणिजस्स कम्मस्स किं बंधंति ? गोयमा! णत्थि किंचि बंधंति। [१७०८-१ प्र.] भगवन्! एकेन्द्रिय जीव सम्यक्त्ववेदनीय (मोहनीय) कर्म कितने काल का बांधते हैं ? [१७०८-२ उ.] गौतम! वे किसी भी काल का बंध नहीं करते - बन्ध करते ही नहीं हैं । [२] एगिंदिया णं भंते! जीवा मिच्छत्तवेयणिजस्स कम्मस्स किं बंधंति ? गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमं पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधति ।
[१७०८-२ प्र.] भगवन्! एकेन्द्रिय जीव मिथ्यात्ववेदनीय (मोहनीय) कर्म कितने काल का बांधते हैं ? __ [१७०८-२ उ.] गौतम! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक सागरोपम काल का बांधते हैं और उत्कृष्ट एक परिपूर्ण सागरोपम का बांधते हैं।