________________
*
एगतीसइमं सण्णिपयं इकतीसवाँ संक्षिपद
प्राथमिक प्रज्ञापनसूत्र के इस इकतीसवें 'संज्ञिपद' में सिद्धसहित समस्त जीवों का संज्ञी, असंज्ञी तथा नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी, इन तीन भेदों के आधार पर विचार किया गया है। इस पद में बताया गया है कि सिद्ध संज्ञी भी नहीं हैं, असंज्ञी भी नहीं हैं, उनकी संज्ञा नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी है, क्योंकि वे मन होते हुए भी उसके व्यापार से ज्ञान प्राप्त नहीं करते। मनुष्यों में भी जो केवली हो गए हों, वे सिद्ध के समान ही नोअसंज्ञी-नोसंज्ञी माने गए हैं, क्योंकि वे भी मन के व्यापार से ज्ञान प्राप्त नहीं करते । अन्य गर्भज और सम्मूछिम मनुष्य क्रमशः संज्ञी और असंज्ञी होते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रय तक सभी जीव असंज्ञी हैं। नारक, भवनवासी वाणव्यन्तर और पंचेन्द्रियतिर्यंच संज्ञी और असंज्ञी दोनों ही प्रकार के हैं। ज्योतिष्क और वैमानिक दोनों संज्ञी हैं। इस पद के उपसंहार में एक गाथा दी गई है, जिसमें मनुष्य को संज्ञी या असंज्ञी दो ही प्रकार का कहा है, परन्तु सूत्र १९७० में मनुष्य में तीनों प्रकार बताए हैं। इससे मालूम होता है कि गाथा का कथन छद्मस्थ मनुष्य की अपेक्षा से होना चाहिए। परन्तु संज्ञा का अर्थ यहाँ मूल में स्पष्ट नहीं है। मनुष्य, नारक, भवनवासी एवं व्यन्तरदेव को असंज्ञी कहा गया है, इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि जिसके मन हो, उसे संज्ञी कहते है, यह अर्थ प्रस्तुत प्रकरण में घटित नहीं होता। यही कारण है कि वृत्तिकार को यहाँ संज्ञा शब्द के दो अर्थ करने पड़े। फिर भी पूरा समाधान नहीं होने से टीकाकार को यह स्पष्टीकरण करना पड़ा कि नारक आदि संज्ञी और असंज्ञी इसलिए हैं कि वे पूर्वभव में संज्ञी या असंज्ञी थे। अतः संज्ञा शब्द यहाँ किस अर्थ में अभिप्रेत है, यह अनुसंधान का विषय है।' आचारांगसूत्र के प्रारम्भ में पूर्वभव के ज्ञान के प्रसंग में, अर्थात् विशेष प्रकार के मतिज्ञान के अर्थ में संज्ञा शब्द प्रयुक्त किया गया है। इसी प्रकार दशाश्रुतस्कन्ध में जहाँ दस चित्तसमाधिस्थानों का वर्णन है, वहाँ अपने पूर्वजन्म के स्मरण करने के अर्थ में संज्ञा शब्द का प्रयोग किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि संज्ञा शब्द
१. पाणवणासुत्तं भाग २ (परिशिष्ट, प्रस्तावना), पृ. १४२ २. 'संज्ञिनः समनस्काः ।'
-तत्वार्थ, २ । २५ ३. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ५३४ ४. (क) 'मतिः स्मृति: संज्ञा चिन्ता ......" इत्यनर्थान्तरम्' - तत्वार्थ. (ख) विशेषावश्यक गा. १२, पत्र ३९४ (ग) इहमेगेसिंणो सण्णा भवइ, तं पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहांसि इत्यादि। -आचारांग श्रु.१ सू. १ सणिणाणं वा से असमुपन्नपुव्वे समुपजेज्जा, अप्पणो पोराणियं जाई सुमरित्तए - दशाश्रुतस्कन्ध दशा ५