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[ प्रज्ञापनासूत्र ]
जीव, जैसे जलौक, चींटी, मक्खी आदि तथा भूत अर्थात् - वनस्पतिकायिक जीव, जीव- अर्थात्-पंचेन्द्रिय प्राणी, जैसे-छिपकली, सर्प आदि तथा सत्व अर्थात् - पृथ्वीकायिक अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक प्राणी को आहत आदि करने के कारण वेदना समुद्घातकर्ता जीव को कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पाँच क्रियाएं लगती हैं। आशय यह है कि जब वह किसी जीव को परिताप नहीं पहुंचाता, न ही जान से मारता है, तब तीन क्रिया वाला होता है। जब किन्हीं जीवों का परितापन करता है, या मारता है, तब भी जिन्हें आबाधा नहीं पहुंचाता, उनकी अपेक्षा से तीन क्रिया वाला होता है। जब किसी को परिताप पहुँचाता है, तब चार क्रियाओं वाला होता है और जब किन्हीं जीवों का घात करता है, तो उनकी अपेक्षा से पांच क्रियाओं वाला होता है । (५) वेदनासमुद्घात करने वाले जीव के पुद्गलों से स्पृष्ट जीव वेदना - समुद्घातकर्त्ता जीव की अपेक्षा से कदाचित् तीन क्रियाओं वाले, कदाचित् चार क्रियाओं वाले और कदाचित् पांच क्रियाओं वाले होते हैं। जब वे समुद्घातकर्ता जीव को कोई बाधा उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होते, तब तीन क्रियाओं वाले होते हैं। जब स्पृष्ट होकर वे उस वेदनासमवहत जीव को परिताप पहुंचाते हैं, तब चार क्रियाओं वाले होते हैं। शरीर से स्पृष्ट होने वाले बिच्छू आदि परितापजनक होते हैं, यह प्रत्यक्षसिद्ध है। किन्तु वे स्पृष्ट होने वाले जीव जब उसे प्राणों से रहित कर देते हैं, तब पांच क्रियाओं वाले होते हैं। शरीर से स्पृष्ट होने वाले सर्प आदि अपने दंश द्वारा प्राणघातक होते हैं, यह भी प्रत्यक्षसिद्ध है। वे पांच क्रियाएं ये हैं— (१) कायिकी, (२) आधिकरणिकी, (३) प्राद्वेषिकी, (४) पारितापनिकी और (५) प्राणातिपातिकी । (६) वेदनासमुद्घात करने वाले जीव के द्वारा मारे जाने वाले जीवों के द्वारा जो अन्य जीव मारे जाते हैं और अन्य जीवों द्वारा मारे जाने वाले वेदनासमुद्घात प्राप्त जीव के द्वारा मारे जाते हैं, उन जीवों की अपेक्षा से संक्षेप में – वेदनासमुद्घात को प्राप्त वह जीव और वेदनासमुद्घात को प्राप्त जीव सम्बन्धी पुद्गलों से स्पृष्ट वे जीव, अन्य जीवों के परम्परागत आघात से, पूर्वोक्तयुक्ति के अनुसार कदाचित् तीन, कदाचित् चार एवं कदाचित् पांच क्रियाओं वाले होते हैं ।
वेदनासमुद्घातसम्बन्धी इन्हीं छह तथ्यों का समग्र कथन नैरयिक से लेकर वैमानिकपर्यन्त चौवीस दण्डकों में करना चाहिए ।
कषायसमुद्घातसम्बन्धी कथन भी वेदनासमुद्घात के पूर्वोक्त कथन के समान जानना चाहिए। मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा
२१५६. [ १ ] जीवे णं भंते! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभति तेहि णं भंते! पोग्गलेहिं केवलिए खेत्ते अफुण्णे केवतिए खेत्ते फुड़े ?
गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ते विक्खंभ-बाहल्लेणं, आयामेणं जहणणेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं असंखेज्जाई जोयणाई एगदिसिं एवइए खेत्ते अफुण्णे एवतिए खेत्ते फुडे ।
१. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १०६८ से १०७६ तक
(ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. ७, पृ. ४५३
२. पण्णवणासुत्तं भा. १ ( मू. पा. टि.) पृ. ४४०