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[प्रज्ञापनासूत्र] व्यापार होता है, उससे भी असंख्यातगुणहीन मनोयोग का प्रति समय निरोध करते हुए असंख्यात समयों में मनोयोग का पूर्णतया निरोध कर देते हैं। ___ मनोयोग का निरोध करने के तुरंत बाद ही वे पर्याप्तक एवं जघन्ययोग वाले द्वीन्द्रिय के वचनयोग से कम असंख्यातगुणहीन वचनयोग का प्रतिसमय निरोध करते हुए असंख्यात समयों में पूर्णतया द्वितीय वचनयोग का निरोध करते हैं।
___ जब वचनयोग का भी निरोध हो जाता है, तब अपर्याप्तक सूक्ष्म पनकजीव, जो प्रथम समय में उत्पन्न हो तथा जघन्य योग वाला एवं सबकी अपेक्षा अल्पवीर्य वाला हो, उसके काययोग से भी कम असंख्यातगुणहीन काययोग का प्रतिसमय निरोध करते हुए असंख्यात समयों में पूर्णरूप से तृतीय काययोग का भी निरोध कर देते है।
इस प्रकार काययोग का भी निरोध करके केवली भगवान समुच्छिन्न, सूक्ष्मक्रिय, अविनश्वर तथा अप्रतिपाती ध्यान में आरूढ़ होते हैं । इस परमशुक्लध्यान के द्वारा वे वदन और उदर आदि के छिद्रों को पूरित करके अपने देह के तृतीय भाग-न्यून आत्मप्रदेशों को संकुचित कर लेते हैं। काययोग की इस निरोधप्रक्रिया से स्वशरीर के तृतीय भाग का भी त्याग कर देते है।
सर्वथा योगनिरोध करने के पश्चात्-वे अयोगिदशा प्राप्त कर लेते हैं। उसके प्राप्त होते ही शैलेशीकरण करते हैं। न अतिशीघ्र और न अतिमन्द, अर्थात् मध्यमरूप से पांच ह्रस्व (अ, इ, उ, ऋ, लूं) अक्षरों का उच्चारण करने में जितना काल लगता है, उतने काल तक शैलेशीकरण-अवस्था में रहते हैं। शील का अर्थ है-सर्वरूप चारित्र, उसका ईश-स्वामी शीलेश और शीलेश की अवस्था 'शैलेशी' है। उस समय केवली सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती तथा समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाती नामक शुक्लध्यान में लीन रहते हैं। उस समय केवली केवल शैलेशीकरण को ही प्राप्त नहीं करते, अपितु शैलेशीकरणकाल में पूर्वरचित गुणश्रेणी के अनुसार असंख्यातगुण-श्रेणियों द्वारा असंख्यात वेदनीयादि कर्मस्कन्धों का विपाक और प्रदेशरूप से क्षय भी करते हैं तथा अन्तिम समय में वेदनीयादि चार अघातिकर्मों का एक साथ सर्वथा क्षय होते ही औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीनों शरीरों का पूर्णतया त्याग कर देते हैं। फिर ऋजुश्रेणी को प्राप्त हो कर, एक ही समय में बिना विग्रह (मोड़) के लोकान्त में जाकर ज्ञानोपयोग से उपयुक्त होकर सिद्ध हो जाते हैं। जितनी भी लब्धियाँ है, वे सब साकारोपयोग से उपयुक्त को ही प्राप्त होती हैं, अनाकारोपयोगयुक्तसमय में नहीं। सिद्धों के स्वरूप का निरूपण
२१७६. ते णं तत्थ सिद्धा भवंति, असरीरा जीवघणा दंसण-णाणोवउत्ता णिट्ठियट्ठा णीरया णिरेयणा वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागतद्धं कालं चिट्ठति। से केणठेणं भंते! एवं वुच्चति ते णं तत्थ सिद्धा भवंति असरीरा जीवघणा दंसण-णाणोवउत्ता णिट्ठियट्ठा णीरया णिरेयणा वितिमिरा विसुद्धा सासतमणागयद्धं कालं चिट्ठति?
गोयमा! से जहाणामए बीयाणं अग्गिदड्डाणं पुणरवि अंकुरुप्पत्ती न हवइ एवमेव सिद्धाण २. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ११५५-५६