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[प्रज्ञापनासूत्र] [४] ते णं भंते! पोग्गला णिच्छूढा समाणा जाई तत्थ पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं अभिहणंति वत्तेति लेसेंति संघाएंति संघटुंति परिया-ति किलावेंति उद्दवेंति तेंहितो णं भंते! से जीवे कतिकिरिए?
गोयमा! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए।
[२१५३-४ प्र.] भगवन्! वे बाहर निकले हुए पुद्गल वहाँ (स्थित) जिन प्राण, भूत, जीव ओर सत्त्वों का अभिघात करते हैं, आवर्तपतित करते (चक्कर खिलाते) हैं, थोड़ा-सा छूते हैं, संघात (एक जगह इकट्ठा) करते हैं, संघट्टित करते हैं, परिताप पहुँचाते हैं, मूर्च्छित करते हैं और घात करते हैं, हे भगवन् ! इनसे वह जीव कितनी क्रिया वाला होता है? __[२१५३-४ उ.] गौतम! वह कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार क्रिया वाला और कदाचित् पांच क्रिया वाला होता है।
[५] ते णं भंते! जीवा ताओ जीवाओ कतिकिरिया ? गोयमा ! सिय तिकिरिया वि चउकिरिया वि पंचकिरिया वि ।
[२१५३-५ प्र.] भगवन् ! वह जीव और वे जीव अन्य जीवों का परम्परा से घात करने से कितनी क्रिया वाले होते हैं?
[२१५३-५ उ.] गौतम! वे तीन क्रिया वाले भी होते हैं, चार क्रिया वाले भी होते हैं और पांच क्रिया वाले भी होते हैं।
[६] से णं भंते ! जीवे ते य जीवा अण्णेसिं जीवाणं परंपराघाएणं कतिकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया वि पंचकिरिया वि।
[२१५३-६ प्र.] भगवन् ! वह जीव और वे जीव अन्य जीवों का परम्परा से घात करने से कितनी क्रिया वाले होते हैं ?
[२१५३-६ उ.] गौतम! वे तीन क्रिया वाले भी होते हैं, चार क्रिया वाले भी होते हैं और पांच क्रिया वाले भी होते हैं।
२१५४. [१] णेरइए णं भंते! वेदणासमुग्घाएणं समोहए० ? एवं जहेव जीवे (सु. २१५३ )। णवरं णेरइयाभिलावो।
[२१५४-१ प्र.] भगवन् ! वेदनासमुद्घात से समवहत हुआ नारक समवहत होकर जिन पुद्गलों को (अपने शरीर से बाहर) निकालता है, उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र आपूर्ण होता है तथा कितना क्षेत्र स्पृष्ट होता है ? इत्यादि पूर्ववत् समग्र (छहों) प्रश्न ?
[२१५४-१ उ.] गौतम! जैसा (सू. २१५३/१-२-३-४-५-६ में) समुच्चय जीव के विषय में कहा था, वैसा
१. (क) पण्णवणासुत्तं, भा. १ (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ४३९-४४०
(ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १०६८ से १०७४ तक १. वही, भाग. ५, पृ. १०७१