Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्र]
[२१५८-२] जिस प्रकार असुरकुमार के विषय में कहा है, उसी प्रकार यहाँ (आगे की सब वक्तव्यता) वैमानिक देव तक (कहनी चाहिए।) विशेष यह है कि एकेन्द्रिय का (मारणान्तिकसमुद्घातसम्बन्धी) समग्र कथन समुच्चय जीव के समान (कहना चाहिए।)
विवेचन-निष्कर्ष-मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत होकर जीव तैजसशरीर आदि के अन्तर्गत जो पुद्गल अपने आत्मप्रदेशों से पृथक् करता है (शरीर से निकालता है), उन पुद्गलों से शरीर का जितना विष्कम्भ (विस्तार) और बाहल्य (मोटाई) होता है, उतना क्षेत्र तथा लम्बाई में जघन्य अपने शरीर से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट असंख्यात योजन तक का क्षेत्र एक दिशा में परिपूर्ण और व्याप्त होता है। यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि उक्त क्षेत्र एक ही दिशा में आपूर्ण और व्याप्त होता है, विदिशा में नहीं, क्योंकि जीव के प्रदेश स्वभावतः दिशा में ही गमन करते हैं। जघन्य और उत्कृष्ट आत्मप्रदेशों द्वारा भी इतने ही क्षेत्र का परिपूरित होना सम्भव है। उत्कृष्टतः लम्बाई में संख्यात योजन जितना क्षेत्र विग्रहगति की अपेक्षा उत्कृष्ट चार समयों में आपूर्ण और स्पृष्ट होता है।
इसके पश्चात् मारणान्तिकसमुद्घात से सम्बन्धित शेष सभी तथ्यों का कथन वेदनासमुद्घात गत कथन के समान करना चाहिए। ___नारक से लेकर वैमानिक तक सभी कथन यावत् 'पांच क्रियाएं लगती हैं', यहाँ तक कहना चाहिए। इसमें विशेष अन्तर यह है - लम्बाई में जघन्य कुछ अधिक हजार योजन और उत्कृष्ट असंख्यात योजन जितना क्षेत्र एक दिशा में आपूर्ण और व्याप्त होता है तथा चार समयों में नहीं, किन्तु अधिक से अधिक तीन समयों में विग्रहगति की अपेक्षा वह क्षेत्र आपूर्ण और स्पृष्ट होता है। असुरकुमार से लेकर वैमानिक तक समुच्चय जीवों के समान वक्तव्यता है, किन्तु विग्रहगति की अपेक्षा अधिक से अधिक तीन समयों में यह क्षेत्र आपूर्ण और व्याप्त हो जाता है, यह कहना चाहिये । नारकादि का विग्रह अधिक से अधिक तीन समय का ही होता है। जैसे कोई नारक वायव्यदिशा में और भारत क्षेत्र में वर्तमान हो तथा पूर्वदिशा में पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अथवा मनुष्य के रूप में उत्पन्न होने वाला हो तो वह प्रथम समय में ऊपर जाता है, दूसरे समय में वायव्यदिशा से पश्चिमदिशा में जाता है और फिर पश्चिम दिशा से पूर्व दिशा में जाता है। इस तरह तीन समय का ही विग्रह होता है, जिसे वैमानिक तक समझ लेना चाहिए।' ____ असुरकुमारों से लेकर ईशानदेवलोक तक के देव पृथ्वीकायिक, अप्कायिक या वनस्पतिकायिक के रूप में भी उत्पन्न होते हैं । जब कोई संक्लिष्ट अध्यवसाय वाला असुरकुमार अपने ही कुण्डलादि के एकदेश में पृथ्वीकायिक के रूप में उत्पन्न होने वाला हो और वह मारणान्तिकसमुद्घात करे तो लम्बाई की अपेक्षा जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग-क्षेत्र को ही व्याप्त करता है। एकेन्द्रिय की सारी वक्तव्यता समुच्चय जीव के समान समझनी चाहिए।
१. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १०७८ से १०७९ तक
(ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. ७, पृ. ४५४ २. (क) वही, भा. ७, पृ. ४५५
(ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १०८१-८२ ३. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १०८३-८४