Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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२८२]
[ प्रज्ञापनासूत्र ]
केवलिसमुद्घात प्रकरण में दो बातों को स्पष्ट किया गया है - (१) यह बात यथार्थ है कि केवलिसमुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के चरम (चतुर्थ) समवर्ती निर्जरा- पुद्गल अत्यन्त सूक्ष्म हैं तथा वे समग्र लोक को व्याप्त करके रहते हैं । (२) छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा- पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श को किचित् भी नहीं
- देख सकते, क्योंकि एक तो वे पुद्गल अत्यन्त सूक्ष्म हैं, दूसरे वे पुद्गल समग्र लोक मे व्याप्त हैं, कहीं भी कोई ऐसी जगह नहीं है, जहाँ वे न हों और समग्र लोक तो बहुत ही बडा है। लोक का एक भाग जम्बूद्वीप से लेकर सभी द्वीप - समुद्रों का विस्तार दुगुना - दुगुना है। अर्थात् जम्बूद्वीप से आगे के लवणसमुद्र और धातकीखण्ड आदि द्वीप, अपने से पहले वाले द्वीप-समुद्रों से लम्बाई-चौडाई में दुगुने और परिधि में बहुत बड़े हैं। तेल में पकाये हुए पूए के समान या रथ के चक्र के समान अथवा कमलकर्णिका के समान आकार का या पूर्ण चन्द्रमा के समान गोल जम्बूद्वीप भी लम्बाई-चौडाई में एक लाख योजन का है। तीन लाख, सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष तथा साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक की उसकी परिधि है । कोई महर्द्धिक एवं यावत् महासुखी, महावली देव विलेपन द्रव्यों से आच्छादित एवं गन्ध द्रव्यों से परिपूर्ण एक डिबिया को लेकर उसे खोले ओर फिर उसे लेकर सारे जम्बूद्वीप के, तीन चुटकियाँ बजाने जितने समय में इक्कीस बार चक्कर लगा कर आ जाए, इतने समय में ही सारा जम्बूद्वीप उन गंधद्रव्यों (पुद्गलों) से व्याप्त हो जाता है। सारे लोक में व्याप्त को तो दूर रहा, लोक के एक प्रदेश – जम्बूद्वीप मे व्याप्त गन्धपुद्गलों को भी जैसे छद्मस्थ मनुष्य पांचों इन्द्रियों से जान-देख नहीं सकता; इसी प्रकार छद्मस्थ मनुष्य केवलिसमुद्घात - समवहत केवली भगवान् द्वारा निर्जीर्ण अन्तिम पुद्गलों को नहीं जान- देख सकता, क्योंकि वे अत्यन्त सूक्ष्म हैं तथा सर्वत्र फैले हुए हैं।
कठिन शब्दों का भावार्थ - चरमा णिज्जरापोग्गला - केवलीसमुद्घात के चौथे समय के निर्जीण पुद्गल । वण्णेणं-वर्णग्राहक नेत्रेन्द्रिय से । घाणेणं - गन्धग्राहक नासिका - घ्राणेन्द्रिय-से रसेणं - रसग्राहक रसनेन्द्रिय से। फासेणं - स्पर्शग्राहक स्पर्शेन्द्रिय से । सव्वब्धंतराए - सब के बीच में । सव्वखुड्डाए - सबसे छोटे । तेलापूयसंठाणंसंठिए - तेल के मालपूए के समान आकार का । रहचक्कवालसंठाणसंठिए - रथ के चक्र के समान गोलाकार। परिक्खेवेणं- परिधि से युक्त । केवलकप्पं- सम्पूर्ण । अच्छरा - णिवातेहिं – चुटकियाँ बजा कर । अणपरियट्टित्ता - चक्कर लगाकर या घूमकर । फुडे – स्पृष्ट है - व्याप्त है ।
आशय - इस प्रकरण को इस प्रकार से प्रारम्भ करने का आशय यह है कि केवलिसमुद्घात से समवहत मुनि के केवलिसमुद्घात के समय शरीर से बाहर निकाले हुए चरमनिर्जरा - पुद्गलों के द्वारा समग्र लोक व्याप्त है। जिसे केवलि ही जान-देख सकता है, छद्मस्थ मनुष्य नहीं । छद्मस्थ मनुष्य सामान्य या विशेष किसी भी रूप में उन्हें जान-देख नहीं सकता ।
केवलिसमुद्घात का प्रयोजन
२१७०. [ १ ] कम्हा णं भंते! केवली समुग्धायं गच्छति ?
१. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १११३ से १११६
२. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. १९१४ से १११६ तक ३. पण्णवणासुत्तं भा. १, पृ. ४४३