Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 299
________________ २८४] [प्रज्ञापनासूत्र] इसका समाधान स्वयं शास्त्रकार करते हैं कि केवली अभी पूर्ण रूप से कृतकृत्य, आठों कों से रहित, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त नहीं हुए, उनके भी चार अघातीकर्म शेष हैं, जो कि भवोपग्राही कर्म होते हैं। अतएव केवली के चार प्रकार के कर्म क्षीण नहीं हुए, क्योंकि उनका पूर्णतः वेदना नहीं हुआ। कहा भी है-'नाभुक्तं क्षीयते कर्म।' कर्मों का क्षय तो नियम से तभी होता है जब उनका प्रदेशों से या विपाक से वेदन कर लिया जाए, भोग लिया जाए। कहा भी है-"सव्वं च पएसतया भुजइ कम्ममणुभावओ भइयं" अर्थात् सभी कर्म प्रदेशों से भोगे जाते हैं, विपाक से भोगने की भजना है। केवली के ४ कर्म,जिन्हें भोगना बाकी है, ये हैं- वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र । चूंकि इन चारों कर्मों का वेदन नहीं हुआ, इसलिए उनकी निर्जरा नहीं हुई। अर्थात् वे आत्मप्रदेशों से पृथक् नहीं हुए। इन चारों में वेदनीयकर्म सर्वाधिक प्रदेशों वाला होता है। नाम और गोत्र भी अधिक प्रदेशों वाले हैं, परन्तु आयुष्यकर्म के बराबर नहीं। आयुष्यकर्म सबसे कम प्रदेशों वाला होता है। केवली के आयुष्यकर्म के बराबर शेष तीन कर्म न हों तो वे उन विषम स्थिति एवं बन्ध वाले कर्मों को आयुकर्म के बराबर करके सम करते हैं। ऐसे सम करने वाले केवली केवलीसमुद्घात करते हैं। वे विषम कर्मों को, जो कि बन्ध से और स्थिति से सम नहीं है, उन्हें सम करते हैं, ताकि चारों कर्मों का एक साथ क्षय हो सके। योग (मन, वचन, काया का व्यापार) के निमित्त से जो कर्म बंधते है, अर्थात् आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक होते है, उन्हें बन्धन कहते हैं और कर्मो के वेदन के काल को स्थिति कहते है। बंधन और स्थिति, इन दोनों से केवली वेदनीय कर्मों को आयुष्यकर्म के बराबर करते हैं। कर्म द्रव्यबन्धन कहलाते हैं, जबकि वेदनकाल को स्थिति कहते हैं। यही केवलिसमुद्घात का प्रयोजन हैं। जिन केवलियों का आयुष्यकर्म बन्धन और स्थिति से भवोपग्राही अन्य कर्मों के तुल्य होता है, वे केवलिसमुद्घात नहीं करते, वे केवलिसमुद्घात किये बिना ही सर्व कर्म मुक्त होकर सिद्ध, बुद्ध एवं सर्व जरा-मृत्यु से मुक्त हो जाते हैं। ऐसे अनन्त सिद्ध हुए हैं। समुद्घात वे ही केवली करते हैं, जिनकी आयु कम होती है और वेदनीयादि तीन कर्मों की स्थिति एवं प्रदेश अधिक होते हैं तब उन सबको समान करने हेतु समुद्घात किया जाता है। समुद्घात करने से उक्त चारों कर्मो के प्रदेश और स्थितिकाल में समानता आ जाती है। यदि वे समुद्घात न करें तो आयुकर्म पहले ही समाप्त हो जाए और उक्त तीन कर्म शेष रह जाएँ। ऐसी स्थिति में या तो तीन कर्मों के साथ वे मोक्षगति में जाएँ या नवीन आयुकर्म का बन्ध करें, किन्तु ये दोनों ही बातें असम्भव हैं । मुक्तदशा में कर्म शेष नहीं रह सकते और न ही मुक्त जीव नये आयुकर्म का बन्ध कर सकते हैं। इसी कारण केवलिसमुद्घात के द्वारा वेदनीयादि तीन कर्मों के प्रदेशों की विशिष्ट निर्जरा करके तथा उनकी लम्बी स्थिति का घात करके उन्हें आयुष्यकर्म के बराबर कर लेते हैं, जिससें चारों का क्षय एक साथ हो सके। गौतम स्वामी विशेष परिज्ञान के लिए पुनः प्रश्न करते है-भगवन् ! क्या सभी केवली समुद्घात में प्रवृत्त होते है ? समाधान-न सभी केवली समुद्घात के लिए प्रवृत्त होते हैं और न ही सभी समुद्घात करते हैं। कारण ऊपर बताया जा चुका है। समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा का अपने शुद्ध स्वभाव में स्थित होना सिद्धि है। जिसके चारों कर्म स्वभावतः समान होते हैं, वह एक साथ उनका क्षय करके समुद्घात किये बिना ही सिद्धि प्राप्त कर लेता १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ११२५ से ११२८ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अ.रा.कोष, भा. ७, पृ. ८२३

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