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[ प्रज्ञापनासूत्र ]
विवेचन – केवली के द्वारा ज्ञान और दर्शन के समकाल में न होने की चर्चा - ( १ ) इस प्रश्न के उठने का कारण छद्मस्थ जीव तो कर्मयुक्त होते हैं, अतः उनका साकारोपयोग और अनाकारोपयोग क्रम से ही प्रादुर्भूत हो सकता है, क्योंकि कर्मों से आवृत जीवों के एक उपयोग के समय, दूसरा उपयोग कर्म से आवृत हो जाता है। इस कारण दो उपयोगों का एक साथ होना विरुद्ध है । अतः जिस समय छद्मस्थ जानता है, उसी समय देखता नहीं है, किन्तु उसके बाद ही देख सकता है। मगर केवली के चार घातिक कर्मों का क्षय हो चुका है। अतः ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने के कारण उनको ज्ञान और दर्शन दोनों एक साथ होने में कोई विरोध या बाधा नहीं है। ऐसी आशंका से गौतमस्वामी द्वारा यह प्रश्न उठया गया कि क्या केवली रत्नप्रभा आदि को जिस समय जानते हैं, उसी समय देखते हैं अथवा जीव-स्वभाव के कारण क्रम से जानते-देखते हैं ?”
आगारेहिं आदि पदों का स्पष्टीकरण - ( १ ) आगारेहिं - केवली भगवान् इस रत्नप्रभापृथ्वी आदि को अर्थात् आकार-प्रकारों से यथा यह रत्नप्रभापृथ्वी खरकाण्ड, पंककाण्ड और अप्काण्ड के भेद से तीन प्रकार की है खरकाण्ड के भी सोलह भेद हैं उनमें से एक सहस्रयोजन प्रमाण रत्नकाण्ड है, तदनन्तर एक सहस्त्रयोजनपरिमित वज्रकाण्ड है, फिर उसके नीचे सहस्रयोजन का वैडूर्यकाण्ड है, इत्यादि रूप के आकार-प्रकारों से समझना । ( २ ) हेऊहिं – हेतुओं से अर्थात् उपपत्तियों से - युक्तियों से । यथा - इस पृथ्वी का नाम रत्नप्रभा क्यों है ? युक्ति आदि द्वारा इसका समाधान यह है कि रत्नमयकाण्ड होने से या रत्न की ही प्रभा या स्वरूप होने से नाम सार्थक है । ( ३ ) उवमाहिं – उपमाओं से अर्थात् सदृशताओं से। जैसे कि - वर्ण से पद्मराग के सदृश रत्नप्रभा में रत्नप्रभ आदि काण्ड हैं, इत्यादि । ( ४ ) दिट्ठतेहिं – दृष्टान्तों उदाहरणों से या वादी प्रतिवादी की बुद्धि समता-प्रतिपादक वाक्यों से। जैसे घट, पट आदि से भिन्न होता है, वैसे ही यह रत्नप्रभापृथ्वी शर्कराप्रभा आदि अन्य नरकपृथ्वियों से भिन्न है, क्योंकि इसके धर्म उनसे भिन्न हैं । इसलिए रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा आदि से भिन्न वस्तु है, इत्यादि । (५) वण्णेहिं वर्ण - गन्धादि के भेद से । शुक्ल आदि वर्णों से उत्कर्ष - अपकर्षकरूप संख्यातगुण, असंख्यातगुण और अनन्तगुण के विभाग से तथा गन्ध, रस और स्पर्श के विभाग से । ( ६ ) संठाणेहिं – संस्थानोंआकारों से अर्थात् रत्नप्रभापृथ्वी में बने भवनों और नरकवासों की रचना के आकारों से। जैसे - वे भवन बाहर से गोल और अन्दर से चौकोर हैं नीचे पुष्कर की कर्णिका की आकृति के हैं। इसी प्रकार नरक अन्दर से गोल और बाहर से चौकोर हैं और नीचे से क्षुरप्र (खुरपा) के आकार के हैं, इत्यादि। (७) पमाणेहिं – प्रमाणों से अर्थात् उसकी लम्बाई, मोटाई, चौड़ाई आदि रूप परिमाणों से। जैसे वह एक लाख अस्सी हजार योजन मोटाई वाली तथा रज्जू-प्रमाण लम्बाई-चौड़ाई वाली है, इत्यादि । ( ८ ) पडोयारेहिं – प्रत्यवतारों से अर्थात् पूर्णरूप से चारों ओर से व्याप्त करने वाले पदार्थों (प्रत्यवतारों) से। जैसे – घनोदधि आदि वलय सभी दिशाओं - विदिशाओं में व्याप्त कर रहे हुए हैं, अतः वे प्रत्यवतार कहलाते हैं। इस प्रकार के प्रत्यवतारों के जानना ।
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प्रथम प्रश्न का तात्पर्य - क्या केवली भगवान् पूर्वोक्त आकारादि से रत्नप्रभादि को जिस समय केवलज्ञान से जानते हैं, उसी समय केवलदर्शन से देखते भी हैं तथा जिस समय वे केवलदर्शन से देखते हैं, क्या उसी समय केवलज्ञान से जानते भी हैं ?
१. प्रज्ञापनासूत्र (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५ पृ. ७४७ से ७४८ तक