Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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२०२]
[प्रज्ञापनासूत्र] वाले आहार को आभोगनिर्वर्तित कहा है। इसलिए नारक आदि जब मनोयोगपूर्वक आहार ग्रहण करते हों, तब वह आभोगनिवर्तित होता है, और जब वे मनोयोग के बिना ही आहार ग्रहण करते हैं, तब अनाभोगनिर्वर्तित आहार यानी लोमाहार करते हैं । एकेन्द्रिय जीवों में अत्यन्त अल्प और अपटु मनोद्रव्यलब्धि होती है, इसलिए पटुतम मनोयोग न होने के कारण उनके आभोगनिर्वर्तित आहार नहीं होता। तृतीय पुद्गलज्ञानद्वार
___ २०४०. णेरइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेहंति ते किं जाणंति पासंति आहारेंति ? उयाहु ण जाणंति ण पासंति आहारेंति ?
गोयमा ! ण जाणंति ण पासंति, आहारेंति।
[२०४० प्र.] भगवन् ! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या वे उन्हें जानते हैं, देखते हैं और उनका आहार करते हैं, अथवा नहीं जानते, नहीं देखते हैं किंतु आहार करते हैं ?
[२०४० उ.] गौतम ! वे न तो जानते हैं और न देखते हैं, किन्तु उनका आहार करते हैं। २०४१. एवं जाव तेइंदिया। [२०४१] इसी प्रकार (असुरकुमारादि से लेकर) त्रीन्द्रिय तक (कहना चाहिए।) २०४२. चउरिंदियाणं पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगइया ण जाणंति पासंति आहारेंति, अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति आहारेंति।
[२०४२ प्र.] चतुरिन्द्रियजीव क्या आहार के रूप में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों को जानते-देखते हैं और आहार करते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न है।
[२०४२ उ.] गौतम ! कई चतुरिन्द्रिय आहार्यमाण पुद्गलों को नहीं जानते, किन्तु देखते हैं और आहार करते हैं, कई चतुरिन्द्रिय न तो जानते हैं, न देखते हैं, किन्तु आहार करते हैं।
२०४३. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा।
गोयमा ! अत्थेगइया जाणंति पासंति आहारेंति १ अत्थेगइया जाणंति ण पासंति आहारेंति २ अत्थेगइया ण जाणंति पासंति आहारेंति ३ अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति आहारेंति ४। __[२०४३ प्र.] पंचेन्द्रियतिर्यंचों के विषय में (आहार सम्बन्धी) पूर्ववत् प्रश्न है।
[२०४३ उ.] गौतम ! कतिपय पंचेन्द्रियतिर्यञ्च (आहार्यमाण पुद्गलों को) जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं १, कतिपय जानते हैं, देखते नहीं और आहार करते हैं, २, कतिपय जानते नहीं, देखते हैं और आहार करते हैं ३, कई पंचेन्द्रियतिर्यञ्च न तो जानते हैं और न ही देखते हैं, किन्तु आहार करते हैं ४ ।
२०४४. एवं मणूसाण वि। १. प्रज्ञापना. (प्रमेयन्बोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ८३१-८३२