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[ प्रज्ञापनासूत्र ]
चाहिए। इसी प्रकार नागकुमारपर्याय में चावत् लगातार वैमानिकपर्याय में जैसे नारक के कषायसमुद्घात कहे हैं, वैसे ही असुरकुमार के भी कहने चाहिए। असुरकुमार के अतीत और भावी कषायसमुद्घात के समान नागकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक भी नारकपने से लेकर वैमानिकपने तक चौवीस दण्डकों में अतीत और भावी कषायसमुद्घात जानने चाहिए। विशेष यह है कि इन सबके स्वस्थानों में भावी कषायसमुद्घात जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त कहने चाहिए। उदाहारणार्थ - असुरकुमारों का असुरकुमारपर्याय और नागकुमारों का नागकुमारपर्याय स्वस्थान है। शेष तेईस दण्डक परस्थान हैं।
पृथ्वीकायिक के असुरकुमारपर्याय में यावत् स्तनितकुमारपर्याय में सकल अतीतकाल की अपेक्षा से अतीत कषायसमुद्घात अनन्त हैं। भावी कषायसमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते हैं। जिसके होते हैं, उसके कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त होते हैं । पृथ्वीकायिक के पृथ्वीकायिक पर्याय में यावत् अप्कायिकत्व, तेजस्कायिकत्व, वायुकायिकत्व, वनस्पतिकायिकत्व से मनुष्यपर्याय तक में अतीत कषायसमुद्घात अनन्त हैं । भावी कषायसमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त हैं । पृथ्वीकायिक के वाणव्यन्तरपन में अतीत और अनागत कषायसमुद्घात उतने ही समझने चाहिए, जितने नारकपन में कहे हैं। ज्योतिष्क और वैमानिक पर्याय में अतीत कषायसमुद्घात अनन्त होते है तथा भावी किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते हैं। जिस पृथ्वीकायिक के होते हैं, उसके जघन्य असंख्यात और उत्कृष्ट अनन्त होते हैं। पृथ्वीकायिक की तरह यावत् अप्कायिक के नारकपन में भवनवासीपन में, एकेन्द्रियपन में, विकलेन्द्रियपन में, पंचेंन्द्रियतिर्यञ्चपन में और मनुष्यपन में भी जान लेना चाहिए।
वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों की कषायसमुद्घातसम्बन्धी वक्तव्यता असुरकुमारों के समान समझनी चाहिए । विशेषता यही है कि स्वस्थान में सर्वत्र एक से लेकर कहना चाहिए। अर्थात् किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते हैं। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो अथवा तीन होते हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होते हैं। इसी प्रकार तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च से लेकर वैमानिकपर्यन्त के नारक पन से लेकर यावत् वैमानिकपन तक में अतीत कषायसमुद्घात अनन्त हैं और भावी कषायसमुद्घात जघन्य एक, दो या तीन हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त हैं।
इस प्रकार ये सब पूर्वोक्त चौवीसों दण्डक चौवीसों दण्डकों में घटाये जाते हैं। अतः सब मिलकर १०५६ दण्डक होते है ।
मारणान्तिकसमुद्घात स्वस्थान में और परस्थान में भी पूर्वोक्त एकोत्तरिका से समझने चाहिए। चौवी दण्डकों के वाच्य नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के नारकपन आदि स्वस्थानों में और असुरकुमारपन आदि परस्थानों में अतीत मारणान्तिकसमुद्घात अनन्त हैं। तात्पर्य यह है कि नारक के स्वस्थान नारकपर्याय और परस्थान असुरकुमारादि पर्याय में अर्थात् वैमानिक तक के सभी स्थानों में अतीत मारणान्तिकसमुद्घात अनन्त होते हैं । भावी
१ (क) अभि. रा. कोष. भा ७, पृ. ४४१
(ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५