Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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२०६]
[ प्रज्ञापनासूत्र ]
. असंख्यात बताए हैं। वे अध्यवसाय प्रशस्त, अप्रशस्त दोनों प्रकार के असंख्यात होते रहते हैं। प्रत्येक समय में
पृथक्-पृथक् संख्यातीत अध्यवसाय लगातार होते हैं।
पंचम सम्यक्त्वाभिगमद्वार
२०४९. रइया णं भंते ! किं सम्मत्ताभिगमी मिच्छत्ताभिगमी सम्मामिच्छत्ताभिगमी ? गोयमा ! सम्मत्ताभिगमी वि मिच्छत्ताभिगमी वि सम्मामिच्छत्ताभिगमी वि।
[२०४९ प्र.] भगवन् ! नारक सम्यक्त्वाभिगमी होते हैं, अथवा मिथ्यात्वाभिगमी होते हैं, या सम्यग्मिथ्यात्वाभिगमी भी होते हैं ।
[२०४९ उ.] गौतम ! वे सम्यक्त्वाभिगमी भी हैं, मिथ्यात्वाभिगमी भी हैं और सम्यग्मिथ्यात्वाभिगमी भी होते
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हैं।
२०५०. एवं जाव वेमाणिया । णवरं एगिंदिय - विगलिंदिया णो सम्मत्ताभिगमी, मिच्छत्ताभिगमी, णो सम्मामिच्छत्ताभिगमी ।
[२०५० ] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष यह है कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय केवल मिथ्यात्वाभिगमी होते हैं, वे न तो सम्यक्त्वाभिगमी होते हैं और न ही सम्यग्मिथ्यात्वाभिगमी होते हैं।
विवेचन – पंचमद्वार का आशय
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- प्रस्तुत द्वार में नारक आदि चौबीस दण्डकों के विषय में सम्यक्त्वाभिगमो ( अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति वाले), मिथ्यात्वाभिगमी ( अर्थात् मिथ्यादृष्टि की प्राप्ति वाले) अथवा सम्यग्मिथ्यात्वाभिगमी (अर्थात् मिश्रदृष्टि वाले) हैं, ये प्रश्न हैं ।
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एकेन्द्रिय मिथ्याभिगमी ही क्यों ? – एकेन्द्रिय जीव सम्यग्दृष्टि नहीं होते, इसलिए वे केवल मिध्यादृष्टि ही होते हैं। किसी-किसी विकलेन्द्रिय में सास्वादन सम्यक्त्व पाया जाता हैं, तथापि अल्पकालिक होने के यहाँ उसकी विवक्षा नहीं की गई है, क्योंकि वे मिथ्यात्व की ओर ही अभिमुख होते हैं।
छठा परिचारणाद्वार
२०५१. देवा णं भंते! किं सदेवीया सपरियारा सदेवीया अपरियारा अदेवीया सपरियारा अदेवीया अपरियारा ?
गोयमा! अत्थेगइया देवा सदेवीया सपरियारा १ अत्थेगइया देवा अदेवीया सपरियारा २ अत्थेगइया देवा अदेवीया अपरियारा ३ णो चेव णं देवा सदेवीया अपरियारा ।
१. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४६
(ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५, पृ. ८४१
२. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५, पृ. ८४२ (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति पत्र ५४६