Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्र] _ नारकों से लेकर चतुरिन्द्रिय जीवों तक की वेदना औपक्रमिकी होती है, इसी तरह वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक की वेदना भी औपक्रमिकी होती है। पंचेन्द्रियतिर्यंचों और मनुष्यों की वेदना दोनों ही प्रकार की होती हैं।' सप्तम निदा-अनिदा-वेदनाद्वार
२०७७. कतिविहा णं भंते! वेदणा पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा वेयणा पण्णत्ता। तं जहा - णिदा य अणिदा य। [२०७७ प्र.] भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है? [२०७७ उ.] गौतम ! वेदना दो प्रकार की कही गई है, यथा – निदा और अनिदा। २०७८. णेरइया णं भंते ! किं णिदायं वेदणं वेदेति अणिदायं वेदणं वेदेति ? गोयमा! णिदायं पि वेदणं वेदेति अणिदायं पि वेदणं वेदेति। से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चति णेरइया णिदायं पि वेदणं वेदेति अणिदायं पि वेदणं वेदेति?
गोयमा! णेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा – सण्णिभूया य असण्णिभूया। तत्थ णं जे ते सण्णिभूया ते णं निदायं वेदणं वेदेति, तत्थ णं जे ते असण्णिभूया ते णं अणिदायं वेदणं वेदेति, से तेणठेणं गोयमा! एवं वुच्चति णेरइया निदायं पि वेदणं वेदेति अणिदायं पि वेदणं वेदेति।
[२०७८ प्र.] भगवन् ! नारक निदावेदना वेदते हैं, या अनिदावेदना वेदते हैं ? [२०७८ उ.] गौतम! नारक निदावेदना भी वेदते हैं और अनिदावेदना भी वेदते हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि नारक निदावेदना भी वेदते हैं और अनिदावेदना भी वेदते
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___ [उ.] गौतम! नारक दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा – संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत । उनमें जो संज्ञीभूत नारक होते हैं, वे निदावेदना को वेदते हैं और जो असंज्ञीभूत नारक होते हैं, वे अनिदावेदना वेदते हैं। इसी कारण हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि नारक निदावेदना भी वेदते हैं और अनिदावेदना भी वेदते हैं।
२०७९. एवं जाव थणियकुमारा। [२०७२] इसी प्रकार स्तनितकुमारों पर्यन्त कहना चाहिए। २०८०. पुढविक्काइयाणं पुच्छा। गोयमा! णो निदायं वेदणं वेदेति, अणिदायं वेदणं वेदेति। से केणट्टेणं भंते! एवं वुच्चति पुढविक्काइया णो णिदायं वेदणं वेदेति अणिदायं वेयणं वेदेति ? गोयमा! पुढविक्काइया सव्वे असण्णी असण्णिभूतं अणिदायं वेदणं वेदेति, से तेणढेणं गोयमा!
१. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ९०१-९०२
(ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ५५७