Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[चौतीसवाँ परिचारणापद]
[२०९ [प्र.] भगवन् ! क्या उन देवों के शुक्र- पुद्गल होते हैं ? [उ.] हाँ (गौतम !) होते हैं। [प्र.] भगवन् ! उन अप्सराओं के लिए वे किस रूप में बार-बार परिणत होते हैं?
[उ.] गौतम! श्रीनेन्द्रियरूप से, चक्षुरिन्द्रियरूप से, घ्राणेन्द्रियरूप से, रसेन्द्रियरूप से, स्पर्शेन्द्रियरूप से, इष्टरूप से, कमनीयरूप से, मनोज्ञरूप से, अतिशय मनोज्ञ (मनाम) रूप से, सुभगरूप से, सौभाग्यरूप-यौवन-गुणलावण्यरूप से वे उनके लिए बार-बार परिणत होते हैं। __ [३] तत्थ णं जे ते फासपरियारगा देवा तेसिं णं इच्छामणे समुप्पज्जइ, एवं जहेव कायपरियारगा तहेव निरवसेसं भाणियव्वं।
[२०५२-३] उनमें जो स्पर्शपरिचारकदेव हैं, उनके मन में इच्छा उत्पन्न होती है, जिस प्रकार काया से परिचारणा करने वाले देवों की वक्तव्यता कही गई है, उसी प्रकार (यहाँ भी) समग्र वक्तव्यता कहनी चाहिए।
_ [४] तत्थ णं जे ते रूवपरियारगा देवा तेसिं णं इच्छामणे समुप्पज्जइ - इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धिं रूवपरियारणं करेत्तए, तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे तहेव जाव उत्तरवेउव्वियाई रूवाई विउव्वंति, विउव्वित्ता जेणामेव ते देवा तेणामेव उवागच्छंति, तेणामेव उवागच्छित्ता तेसिं देवाणं अदूरसामंते ठिच्चा ताई ओरालाई जाव मणोरमाइं उत्तरवेउब्बियाई रूवाइं उवदंसेमाणीओ उवदंसेमाणीओ चिट्ठति, तए णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं रूवपरियारणं करेंति, सेसं तं चेव जाव भुजो भुजो परिणमंति।
[२०५२-४] उनमें जो रूपपरिचारक देव हैं, उनके मन में इच्छा समुत्पन्न होती है कि हम अप्सराओं के साथ रूपपरिचारणा करना चाहते हैं। उन देवों द्वारा मन से ऐसा विचार किये जाने पर (वे देवियाँ) उसी प्रकार (पूर्ववत्) यावत् उत्तरवैक्रिय रूप की विक्रिया करती हैं। विक्रिया करके जहाँ वे देव होते हैं, वहाँ जा पहुँचती हैं और फिर उन देवों के न बहुत दूर और न बहुत पास स्थित होकर उन उदार यावत् मनोरम उत्तरवैक्रिय-कृत रूपों को दिखलातीदिखलाती खड़ी रहती हैं। तत्पश्चात् वे देव उन अप्सराओं के साथ रूपपरिचारणा करते हैं। शेष सारा कथन उसी प्रकार (पूर्ववत्) वे बार-बार परिणत होते हैं, (यहाँ तक कहना चाहिए ।)
[५] तत्थ णं जे ते सहपरियारगा देवा तेसिं णं इच्छामणे समुप्पजइ-इच्छामो णं अच्छाराहिं सद्धिं सद्दपरियारणं करेत्तए, तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे तहेव जाव उत्तरवेउव्वियाई रूवाई विउव्वंति, विउव्वित्ता जेणामेव ते देवा तेणामेव उवागच्छंति, तेणामेव उवागच्छित्ता तेसिं देवाणं अदूरसामंते ठिच्चा अणुत्तराई उच्चावयाई सद्दाई समुदीरेमाणीओ समुदीरेमाणीओ चिट्ठति, तए णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं सद्दपरियारणं करेंति, सेसं तं चेव जाव भुजो भुजो परिणमंति।
[२०५२-५] उनमें जो शब्दपरिचारक देव होते हैं, उनके मन में इच्छा उत्पन्न होती है कि हम अप्सराओं के साथ शब्दपरिचारणा करना चाहते हैं। उन देवों के द्वारा इस प्रकार मन में विचार करने पर उसी प्रकार (पूर्ववत्) यावत् उत्तरवैक्रिय रूपों की विक्रिया करके जहाँ वे देव होते हैं, वहाँ देवियां जा पहुँचती हैं। फिर वे उन देवों के न अति दूर न अति निकट रुककर सर्वोत्कृष्ट उच्च-नीच शब्दों का बार-बार उच्चारण करती रहती हैं। इस प्रकार वे