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[प्रज्ञापनासूत्र]
२०३४. [१] असुरकुमारा णं भंते! अणंतराहारा तओ णिव्वत्तणया तओ परियाइयणया तओ परिणामणया तओ विउव्वणया तओ पच्छा परियारणया?
गोयमा! असुरकुमारा अणंतराहार तओ णिव्वत्तणया जाव तओ पच्छा परियारणया।
[२०३४-१ प्र.] भगवन्! क्या असुरकुमार भी अनन्तराहारक होते हैं? फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती हैं ? फिर वे क्रमशः पर्यादान, परिणामना करते हैं ? और तत्पश्चत् विकुर्वणा और फिर परिचारणा करते हैं? ।
[२०३४-१ उ.] हाँ, गौतम! असुरकुमार अनन्तराहारी होते हैं, फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती है यावत् फिर वे परिचारणा करते हैं।
[२] एवं जाव थणियकुमारा। [२०३४-२] इसी प्रकार की वक्तव्यता स्तनितकुमारपर्यन्त कहनी चाहिए।
२०३५. पुढविक्काइया णं भंते! अणंतराहार तओ णिव्वत्तणया तओ परियाइयणया तओ परिणामणया य तओ परियारणया ततो विउव्वणया ?
हंता गोयमा! तं चेव जाव परियारणया, णो चेव णं विउव्वणया।
[२०३५ प्र.] भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक अनन्तराहारक होते हैं? फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती है ? तत्पश्चात् पर्यादानता, परिणामना, फिर परिचारणा और तब क्या विकुर्वणा होती है? .
[२०३५ उ.] हाँ, गौतम! पृथ्वीकायिक की वक्तव्यता यावत् परिचारणापर्यन्त पूर्ववत् कहनी चाहिए किन्तु वे विकुर्णवा नहीं करते।
२०३६. एवं जाव चउरिंदिया। णवरं वाउक्काइया पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य जहा णेरइया (सु. २०३३)।
[२०३६] इसी प्रकार चतुरिन्द्रियपर्यन्त कथन करना चाहिए। विशेष यह है कि वायुकायिक जीव, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्यों के विषय में (सू. २०३३ में उक्त) नैरयिकों के कथन के समान जानना चाहिए।
२०३७. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा (सु. २०३४)। [२०३७] वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिकों की वक्तव्यता असुरकुमारों की वक्तव्यता के समान जाननी
चाहिए।
विवेचन-अनन्तराहार से विकुर्वणा तक के क्रम की चर्चा-नारक आदि चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के विषय में प्रथम द्वार में अनन्तराहार, निष्पत्ति, पर्यादानता, परिणामना, परिचारणा और विकुर्वणा के क्रम की चर्चा की गई है।
अनन्तराहारक आदि का विशेष अर्थ-अनन्तराहारक-उत्पत्ति क्षेत्र में आने के समय ही आहार करने वाले। निर्वर्तना-शरीर की निष्पत्ति, पर्यादानता-आहार्य पुद्गलों का ग्रहण करना। परिणामना-गृहीत पुद्गलों १. पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ४१९