Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
१८० ]
܀
[ प्रज्ञापनासूत्र ]
अवधिज्ञान के स्वरूप कर्मग्रन्थ आदि में बताया गया है कि इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मा को अवधि-मर्यादा में होने वाला रूपी पदार्थों का ज्ञान अवधिज्ञान है । वह भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय ( क्षायोपशमिक) दो प्रकार का है। देवों और नारकों को यह जन्म से होता है और मनुष्यों एवं पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों को कर्मों के क्षयोपशम से प्राप्त होता है।
अवधिज्ञान के क्षेत्रगत विषय की चर्चा का सार यह है - नारक क्षेत्र की दृष्टि से कम से कम आधा गाऊ और अधिक से अधिक चार गाऊ तक जानता देखता है। फिर एक-एक करके सातों ही नरकों के नारकों के अवधि क्षेत्र का निरूपण है, नीचे की नरक भूमियों में उत्तरोत्तर अवधिज्ञानक्षेत्र कम होता जाता है। भवनवासी निकाय में असुरकुमार का अवधिक्षेत्र कम से कम २५ योजन और उत्कृष्ट असंख्यात द्वीपसमुद्र है। बाकी के नागकुमारादि का अवधिक्षेत्र उत्कृष्ट संख्यात द्वीप - समुद्र है। पंचेन्द्रियतिर्यच का अवधिक्षेत्र जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट संख्यात द्वीप समुद्र है। मनुष्य का उत्कृष्ट अवधिक्षेत्र अलोक में भी लोकपरिमित असंख्यात लोक जितना है । वाणव्यन्तर का अवधिक्षेत्र नागकुमारवत् है। ज्योतिष्कदेवों का जघन्य असंख्यात द्वीप समुद्र है। वैमानिक देवों के अवधिक्षेत्र की विचारणा में विमान से नीचे का, ऊपर का और तिरछे भाग का अवधिक्षेत्र बताया है। विमान पर उन उन वैमानिक देवों का अवधिक्षेत्र विस्तृत है। अनुत्तरौपपातिक देवों का अवधिक्षेत्र समग्र लोकनाडी- प्रमाण है ।
अवधिज्ञान का क्षेत्र की अपेक्षा से तप्र (डोंगी), पल्लक, झालर, पटह आदि के समान विविध प्रकार का आकार बताया है।
आचार्य मलयगिरि ने उसका निष्कर्ष यह निकाला है कि भवनवासी और व्यन्तर को ऊपर के भाग में, वैमानिकों को नीचे के भाग में तथा ज्योतिष्क और नारकों को तिर्यदिशा में अधिक विस्तृत होता है। मनुष्य और तिर्यञ्चों के अवधिज्ञान का आकार विचित्र होता है ।
बाह्य और अभ्यन्तर अवधि की चर्चा में बताया गया है कि नारक और देव अवधिक्षेत्र के अन्दर हैं, अर्थात्उनका अवधिज्ञान अपने चारो ओर फैला हुआ है, तिर्यञ्च में वैसा नहीं है। मनुष्य अवधि क्षेत्र में भी है और बाह्य भी है। इसका तात्पर्य यह है कि अवधिज्ञान का प्रसार स्वयं जहाँ है, वहीं से हो तो वह अवधि के अन्दर (अन्तः) माना जाता है, परन्तु अपने से विच्छिन्न प्रदेश में अवधि का प्रसार हो तो वह अवधि से बाह्य माना जाता है। सिर्फ मनुष्य को ही सर्वावधि सम्भव है, शेष सभी जीवों को देशावधि ही होता है ।
आगे से द्वारों में नरकादि जीवों मे आनुगामिक- अनानुगामिक, हीयमान- वर्धमान, प्रतिपाति - अप्रतिपाती तथा अवस्थित और अनवस्थित आदि अवधिभेदों की प्ररूपणा की गई है। -
कुल मिलाकर अवधिज्ञान की सांगोपांग चर्चा प्रस्तुत पद में की गई है। भगवतीसूत्र एवं कर्मग्रन्थ में भी इतनी विस्तृत विचारणा नहीं की गई है।
१. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ - टिप्पण) पृ. ४१५ से ४१८ तक
(ख) पण्णवणासुतं भा. २ (परिशिष्ट - प्रस्तावनादि) पृ. १४० - १४१