________________
१९६]
[ प्रज्ञापनासूत्र ]
पर जीव परिचारणा करता है, फिर विक्रिया करता है। देवों में पहले विक्रिया है फिर परिचारणा है । एकेन्द्रियों तथा विकलेन्द्रियों में परिचारणा है, विक्रिया नहीं होती है। परिचारणा में शब्दादि सभी विषयों का उपभोग होने लगता है।
*
*
܀
में
आहार की चर्चा के पश्चात् आभोगनिर्वर्तित और अनाभोगनिर्वर्तित आहार का उल्लेख किया है। प्रस्तुत आभोगनिर्वर्तित का अर्थ वृत्तिकार ने किया है
'मनः प्रणिधानपूर्वकमाहारं गृहन्ति' अर्थात् मनोयोगपूर्वक जो आहार ग्रहण किया जाए। अनाभोगनिर्वर्तित आहार का अर्थ है - इसके विपरीत जो आहार मनोयोगपूर्वक न किया गया हो। जैसे एकेन्द्रियों के मनोद्रव्यलब्धि पटु नहीं है, इसलिए उनके पटुतर आभोग (मनोयोग ) नहीं होता। परन्तु यहाँ रसनेन्द्रिय वाले प्राणी के मुख होने से उसे खाने की इच्छा होती है इसलिए एकेन्द्रिय में अनाभोगनिर्वर्तित आहार माना गया है। एकेन्द्रिय के सिवाय सभी जीव आभोगनिर्वर्तित और अनाभोगनिर्वर्तित दोनों प्रकार का आहार लेते है।
इसके पश्चात् ग्रहण किये हुए आहार्यपुद्गलों को कौन जीव जानता देखता है, कौन नहीं ? इसकी चर्चा है। आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः इस सूक्ति के अनुसार आहार का अध्यवसाय के साथ सम्बन्ध होने से यहाँ आहार के बाद अध्यवसाय स्थानों की चर्चा की गई है। चौवीस दण्डकों में प्रशस्त और अप्रशस्त अध्यवसायस्थान असंख्यात प्रकार के होते हैं। परिचारणा के साथ स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध का निकट सम्बन्ध है । यही कारण है कि षट्खण्डागम में कर्म के स्थितिबन्ध और अनुाभागबन्ध के अध्यवसायस्थानों की विस्तृत चर्चा है।
इसके पश्चात् चौवीस दण्डकों में सम्यक्त्वाभिगामी, मिथ्यात्वाभिगामी और सम्यग्मिथ्यात्वाभिगामी की चर्चा है। परिचारणा के सन्दर्भ में यह प्रतिपादन किया गया है, इससे प्रतीत होता है कि सम्यक्त्वी और मिथ्यात्वी का परिचारणा के परिणामों पर पृथक्-पृथक् असर पड़ता है। सम्यक्त्वी द्वारा की गई परिचारणा और मिथ्यात्वी द्वारा की गई परिचारणा के भावों में रात-दिन का अन्तर होगा, तदनुसार कर्मबन्ध में भी अन्तर पडेगा ।
यहाँ तक परिचारणा की पृष्ठभूमि के रूप में पांच द्वार शास्त्रकार ने प्रतिपादित किये है
(१) अनन्तराहारद्वार, (२) आहाराभोगद्वार, (३) पुद्गलज्ञानद्वार, (४) अध्यवसानद्वार और (५) सम्यक्त्वाभिगमद्वार।
१. (क) पण्णवणासुतं भा. २ ( प्रस्तावना - परिशिष्ट ) पृ. १४५
(ख) प्रज्ञपना. मलयवृत्ति, पत्र ५४५
(ग) पण्णवणासुतं भा. २ ( मू. पा. टि.) पृ. १४६
२. (क) पण्णवणासुतं भा. २ ( प्रस्तावना) पृ. १४६ - १४७ (ख) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मू.पा.टि.) पृ. १४६