Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्राथमिक]
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* इसके पश्चात् छठा परिचारणाद्वार प्रारम्भ होता है। परिचारणा को शास्त्रकार ने चार पहलुओं से प्रतिपादित
किया है-(१) देवों के सम्बन्ध में परिचारणा की दृष्टि से निम्नलिखित तीन विकल्प सम्भव हैं, चौथा विकल्प सम्भव नहीं है। (१) सदेवीक सपरिचार देव (२) अदेवीक सपरिचार देव, (३) अदेवीक अपरिचार देव। कोई भी देव सदेवीक हो, साथ ही अपरिचार भी हो, ऐसा सम्भव नहीं। अत: उपर्युक्त तीन सम्भावित विकल्पों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-(१) भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्मईशान वैमानिक में देवियाँ होती हैं । इसलिए इनमें कायिकपरिचारणा (देव-देवियाँ का मैथुनसेवन) होती है। (२) सनत्कुमारकल्प से अच्युतकल्प के वैमानिक देवों में अकेले देव ही होते हैं, देवियाँ नहीं होतीं, इसके लिए द्वितीय विकल्प है-उन विमानों में देवियाँ नहीं होती, फिर भी परिचारणा होती है। (३) किन्तु नौ ग्रैवेयक और अनुत्तरविमानों में देवी भी नहीं होती और वहाँ के देवों द्वारा परिचाारणा भी नहीं होती। यह तीसरा विकल्प है। जिस देवलोक में देवी नहीं होती, वहाँ परिचारणा कैसे होती है ? इसका समाधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-(१) सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प में स्पर्श-परिचारणा, (२) ब्रह्मलोक और लान्तककल्प में रूपपरिचारणा, (३) महाशुक्र और सहस्रारकल्प में शब्द-परिचारणा, (४) आनत-प्राणत तथा आरण-अच्युतकल्प में मन:परिचारणा होती है। कायपरिचारणा तब होती है, जब देवों में स्वतः इच्छा-मन की उत्पत्ति अर्थात् कायपरिचारणा की इच्छा होती है और तब देवियाँ-अप्सराएँ मनोरम मनोज्ञ रूप तथा उत्तरवैक्रिय शरीर धारण करके उपस्थित होती हैं। देवों की कायिक परिचारणा मनुष्य के कायिक मैथुनसेवन के समान देवियों के साथ होती है। शास्त्रकार ने आगे यह भी बताया है कि देवों में शुक्र पुद्गल होते है, वे उन देवियों में संक्रमण करके पंचेन्द्रियरूप में परिणत होते हैं तथा अप्सरा के रूप लावण्यवर्द्धक भी होते हैं । यहाँ एक विशेष वस्तु ध्यान देने योग्य है कि देव के उस शुक्र से अप्सरा में गर्भाधान नहीं होता, क्योंकि देवों के वैक्रियशरीर होता है। उनकी उत्पत्ति गर्भ से नहीं, किन्तु औपपातिक है। जहाँ स्पर्श, रूप एवं शब्द से परिचारणा होती है, उन देवलोकों में देवियां नहीं होतीं। किन्तु देवों को जब स्पर्शादि-परिचारणा की इच्छा होती है, तब अप्सराएँ (देवियाँ) विक्रिया करके स्वयं उपस्थित होती हैं । वे देवियाँ सहस्रारकल्प तक जाती हैं, यह खासतौर से ध्यान देने योग्य है। फिर वे देव क्रमशः (यथायोग्य) स्पर्शादि से ही सन्तुष्टि-तृप्ति अनुभव करते हैं । यही उनकी परिचारणा है। स्पर्शादि से परिचारणा करने वाले
देवों के भी शुक्र-विर्सजन होता है। * वृत्तिकार ने इस विषय में स्पष्टीकरण किया है कि देव-देवी का कायिक सम्पर्क न होने पर भी दिव्य-प्रभाव
के कारण देवी मे शुक्र-संक्रमण होता है और उसका परिणमन भी उन देवियों के रूप-लावण्य में वृद्धि
करने में होता है। १. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ५४९ (ख) वही, केवलमेते वैक्रियशरीरान्तर्गता इति न गर्भाधानहेतवः। -पत्र ५५०-५५१