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तेत्तीसइमं ओहिपयं
तेतीसवाँ अवधिपद तेतीसवें पद के अर्थाधिकारों की प्ररूपणा
१९८१. भेद १ विसय २ संठाणे ३ अब्भिंतर-बाहिरं ४ य देसोही ५।
ओहिस्स य खय-वुड्डी ६ पडिवाई चेवऽपडिवाई ७॥ २२२॥
[१९८१ संग्रहणी-गाथार्थ –] तेतीसवें पद में इन सात विषयों का अधिकार है - (१) भेद, (२) विषय, (३) संस्थान, (४) आभ्यन्तर-बाह्य, (५) देशावधि, (६) अवधि का क्षय और वृद्धि, (७) प्रतिपाती और अप्रतिपाती।
विवेचन–सातद्वार-तेतीसवें पद में प्रतिपाद्य विषय के सात द्वार इस प्रकार हैं। (१) प्रथम द्वारअवधिज्ञान के भेद-प्रभेद, (२) द्वितीय द्वार-अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र का विषय (३) तृतीय द्वारअवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र का संस्थान-आकार, (४) चतुर्थ द्वार-अवधिज्ञान के दो प्रकार-आभ्यन्तर और बाह्य, (५) पंचम द्वार-देश अवधि-सर्वोत्कृष्ट अवधि में से सर्वजघन्य और मध्यम अवधि, (६) छठा द्वार-अवधिज्ञान के क्षय और वृद्धि का कथन, अर्थात् हीयमान और वर्द्धमान अवधिज्ञान तथा (७) सप्तम द्वारप्रतिपात (उत्पन्न होकर कुछ ही काल तक टिकने वाला) अवधिज्ञान एवं अप्रतिपाती-मृत्यु से या केवलज्ञान से पूर्व तक नष्ट न होने वाला अवधिज्ञान ।' प्रथम : अवधि-भेद द्वार
१९८२. कतिविहा णं भंते! ओही पण्णत्ता ?
गोयमा! दुविहा ओही पण्णत्ता। तं जहा - भवपच्चइया य खओवसमिया या दोण्ह भवपच्चइया, तं जहा-देवाण य णेरइयाण य । दोण्हं खओवसमिया, तं जहा-मणुसाणं पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण य।
[१९८२ प्र.] भगवन् ! अवधि (ज्ञान) कितने प्रकार का कहा गया है?
[१९८२ उ.] गौतम! अवधि (ज्ञान) दो प्रकार का कहा गया है, यथा-भवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक। दो को भवप्रत्ययिक अवधि (ज्ञान) होता है, यथा-देवों को और नारकों को। दो को क्षायोपशमिक होता है, यथामनुष्यों को और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों को।
विवेचन-अवधिज्ञान : स्वरूप और प्रकार-इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना आत्मा को अवधि-मर्यादा में होने वाला रूपी पदार्थों का ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है। जहाँ प्राणी कर्मों के वशीभूत होते हैं। अर्थात् जन्म लेते हैं, वह है भव अर्थात् नारक आदि सम्बन्धी जन्म। भव जिसका कारण हो, वह भवप्रत्ययिक है। अवधिज्ञानावरणीय कर्म के उदयावलिका में प्रविष्ट अंश का वेदन होकर पृथक् हो जाना क्षय है और जो उदयावस्था १ (क) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ५. प. ७७५-७७४.