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[ तेतीसवाँ अवधिपद ]
सम्बद्ध नहीं रहता, तब वह बाह्यावधि कहलाता है।
नारक और समस्त जाति के देव भवस्वभाव के कारण अवधिज्ञान के अन्तः- मध्य में ही रहने वाले होते हैं, बहिर्वर्ती नहीं होते। उनका अवधिज्ञान सभी ओर के क्षेत्र को प्रकाशित करता है, इसलिए वे अवधि के मध्य में ही होते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च तथाविध भवस्वभाव के कारण अवधि के अन्दर नहीं होते, बाहर होते हैं। उनका अवधि स्पर्द्धकरूप होता है जो बीच-बीच में छोड़कर प्रकाश करता है, मनुष्य अवधि के मध्यवर्ती भी होते हैं, बहिर्वर्ती भी।
पंचम देशावधि - सर्वावधिद्वार
२०२२. णेरड्या णं भंते! किं देसोही सव्वोही ?
गोयमा! देसोही, णो सव्वोही ।
[२०२२ प्र.] भगवन् ! नारकों का अवधिज्ञान देशावधि होता है अथवा सर्वावधि होता है ? . [२०२२ उ.] गौतम ! उनका अवधिज्ञान देशावधि होता है, सर्वावधि नहीं होता है।
२०२३. एवं जाव थणियकुमाराणं ।
[२०२३] इसी प्रकार ( का कथन ) स्तनितकुमारों तक के विषय में (समझना चाहिए।)
२०२४. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ।
गोयमा! देसोही, णो सव्वोही ।
[२०२४ प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों का अवधि देशावधि होता है या सर्वावधि होता है ? [२०२४ उ.] गौतम ! वह देशावधि होता है, सर्वावधि नहीं होता है ?
२०२५. मणूसाणं पुच्छा ।
गोयमा ! देसोही वि सव्वोही वि ।
[२०२५ प्र.] भगवन् ! मनुष्यों का अवधिज्ञान देशावधि होता है या सर्वावधि होता है ? [२०२५ उ.] गौतम ! उनका अवधिज्ञान देशावधि भी होता है, सर्वावधि भी होता है। २०२६. वाणमंतर जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा णेरइयाणं (सु. २०२२ ) । [२०२६] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का ( अवधि भी) (सू. २०२२ समान) (देशावधि होता है ।)
१. (क) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ७७३ से ७७५ तक २. वही, भा. ५, पृ. ८१० से ८१२ तक
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विवेचन – देशावधि और सर्वावधि : स्वरूप एवं विश्लेषण अवधिज्ञान तीन प्रकार का होता है। सर्वजघन्य, मध्यम और सर्वोत्कृष्ट । इनमें से सर्वजघन्य और मध्यम अवधि को देशावधि कहते हैं और सर्वोत्कृष्ट
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उक्त नारकों के