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[तेतीसवाँ अवधिपद]
[१८९ गोयमा। पुप्फचंगेरिसंठिए पण्णत्ते। [२०१५ प्र.] भगवन् ! ग्रैवेयकदेवों के अवधिज्ञान का आकार कैसा है? [२०१५ उ.] गौतम! वह फूलों की चंगेरी (छबड़ी या टोकरी) के आकार का है। २०१६. अणुत्तरोववाइयाणं पुच्छा। गोयमा! जवणालियासंठिए ओही पण्णत्ते। [२०१६ प्र.] भगवन् ! अनुत्तरौपपातिकदेवों के अवधिज्ञान का आकार कैसा है ? [२०१६ उ.] गौतम! उनका अवधिज्ञान यवनालिका के आकार का कहा गया है।
विवेचन-जीवों के अवधिज्ञान के विविध आकार नारकों का तप्राकार, भवनवासी देवों का पल्लकाकार, पंचेन्द्रियतिर्यंचों और मनुष्यों का नाना आकार का, व्यन्तरदेवों का पटहाकार का, ज्योतिष्कदेवों का झालर के आकार का, सौधर्मकल्प से अच्युतकल्प के देवों का उर्ध्वमृदंगाकार का ग्रैवेयकदेवों का पुष्पचंगेरी के आकार का और अनुत्तरौपपातिकदेवों का यवनालिका के आकार का अवधिज्ञान है । वस्तुतः अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र का आकार उपचार से अवधि का आकार कहा जाता है।
कठिन शब्दों का अर्थ - तप - नदी के वेग में बहता हुआ, दूर से लाया हुआ लम्बा और तिकोना काष्ठविशेष अथवा लम्बी और तिकोनी नौका। पल्लक- लाढ़देश में प्रसिद्ध धान भरने का एक पात्रविशेष, जो ऊपर और नीचे की ओर लम्बा, ऊपर कुछ सिकुड़ा हुआ, कोठी के आकार का, होता है । पटह-ढोल (एक प्रकार का बाजा), झल्लरी-झालर, एक प्रकार का बाजा, जो गोलाकार होता है, इसे ढपली भी कहते हैं। उर्ध्व-मृदंगऊपर को उठा हुआ मृदंग जो नीचे विस्तीर्ण और ऊपर संक्षिप्त होता है। पुष्पचंगेरी-फूलों की चंगरी, सूत से गूंथे हुए फूलों की शिखायुक्त चंगेरी। चंगेरी टोकरी या छबड़ी को भी कहते हैं।
अवधिज्ञान के कारण का फलितार्थ यह है कि भवनवासी और वाणव्यन्तरदेवों का अवधिज्ञान ऊपर की ओर अधिक होता है और वैमानिकों का नीचे की ओर अधिक होता है। ज्योतिष्कों और नारकों का तिरछा तथा मनुष्यों और तिर्यञ्चों का विविध प्रकार का होता है। ___पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों का अवधिज्ञान - जैसे स्वयम्भूरमणसमुद्र में मत्स्य नाना आकार के होते हैं, वैसे ही तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों एवं मनुष्यों में नाना आकार का होता है। वलयाकार भी होता है।' चतुर्थः अवधि-आभ्यन्तर-बाह्यद्वार
२०१७. णेरइया णं भते ! ओहिस्स किं अंतो बाहिं ? गोयमा! अंतो, नो बाहिं।
[२०१७ प्र.] भगवान् ! क्या नारक अवधि (ज्ञान) के अन्दर होते हैं, अथवा बाहर होते हैं ? १. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ४१७-४१८ (ख) प्रज्ञापनासूत्र (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ.,८०६ से ८१० तक