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[प्रज्ञापनासूत्र] १९६२. अवसेसा जहा णेरइया (सु. १९५५) जाव वेमाणिया।
[१९६२] अवशिष्ट सभी (वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा) वैमानिक तक के विषय में (सू. १९५५ में उक्त) नैरयिकों के समान (जानना चाहिए।)
विवेचन – किन-किन जीवों में साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता होती है और क्यों? -(१) समुच्चय जीवों में जो जीव श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी या केवलज्ञानी हैं अथवा श्रुताज्ञानी या विभंगज्ञानी हैं, वे साकारपश्यत्ता वाले हैं, क्योंकि उनका ज्ञान साकारपश्यत्ता से युक्त है। जो जीव चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी तथा केवलदर्शनी हैं, वे अनाकारपश्यत्ता वाले हैं, क्योंकि उनका बोध अनाकारपश्यत्ता है। मनुष्यों में भी समुच्चय जीवों के समान साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता दोनों हैं। नारक भी साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता वाले हैं. किन्तु नारक मनपर्यवज्ञान और केवलज्ञान रूप साकारपश्यत्ता से युक्त नहीं होते, तथैव केवलदर्शन रूप अनाकारपश्यत्ता वाले भी वे नहीं होते। इसका कारण यह है नारक चारित्र अंगीकार नहीं कर सकते, अतएव उनमें ये तीनों सम्भव नहीं होते। पृथ्वीकायिक आदि पांचों एकेन्द्रिय तथा द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीव साकारपश्यत्ता वाले होते हैं, अनाकारपश्यत्ता नहीं होती, क्योंकि एकेन्द्रिय जीवों में श्रुताज्ञान रूप साकारपश्यत्ता होती है, अनाकारपश्यत्ता नहीं होती, क्योंकि उनमें विशिष्ट परिस्फुट बोध रूप पश्यत्ता नहीं होती। चतुरिन्द्रियों में दोनों ही पश्यत्ताएँ होती हैं, क्योंकि उनके चक्षुरिन्द्रिय होने से चक्षुदर्शनरूप अनाकारपश्यत्ता भी होती है । चतुरिन्द्रिय जीव श्रुतज्ञानी एवं श्रुताज्ञानी होने से वे साकारपश्यत्तायुक्त होते ही हैं । भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक जीव नारकों की तरह साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता से युक्त होते हैं।' केवली में एक समय में दोनों उपयोगों के निषेध की प्ररूपणा ___ १९६३. केवली णं भंते ! इमं त्यणप्पभं पुढविं आगारेहिं हेतूहिं उवमाहिं दिटुंतेहिं वण्णेहिं संठाणेहिं पमाणेहिं पडोयारेहिं जं समयं जाणइ तं समयं पासइ जं समयं पासइ तं समयं जाणइ ?
गोयमा ! णो इणठे समढे।
से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चति केवली णं इमं रयणप्पभं आगारेहिं जाव जं समयं जाणइ णो तं समयं पासइ जं समयं पासइ णो तं समयं जाणइ?
गोयमा! सागारे से णाणे भवति अणागारे से दंसणे भवति, से तेणट्टेणं जाव णो तं समयं जाणइ। एवं जाव अहेसत्तमं । एवं सोहम्मं कप्पं जाव अच्चुयं गेवेजगविमाणे अणुत्तरविमाणे ईसीपब्भारं पुढविं परमाणुपोग्गलं दुपएसियं खंधं अणंतपदेसियं खंधं।
[१९६३ प्र.] भगवन् ! क्या केवलज्ञानी इस रत्नप्रभापृथ्वी को आकारों से, हेतुओं से, उपमाओं से, दृष्टान्तों से, वर्णों से, संस्थानों से, प्रमाणों से और प्रत्यवतारों से जिस समय जानते हैं, उस समय देखते हैं तथा जिस समय देखते हैं, उस समय जानते हैं? १. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५. पृ.७३९ से ७४४ तक (ख) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. ४११-४१२