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बत्तीसइमं संजयपयं बत्तीसवाँ संयतपद
प्राथमिक
* प्रज्ञापनासूत्र का यह बत्तीसवां पद है, इसका नाम संयतपद है।
संयतपद मानवजीवन का सर्वोत्कृष्ट पद है। संयतपद प्राप्त करने के बाद ही मोक्ष की सीढ़ियाँ उत्तरोत्तर शीघ्रता से पार की जा सकती हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय की सर्वोत्तम आराधना इसी पद पर आरूढ होने के बाद हो सकती है। इसीलिए प्रज्ञापना के बत्तीसवें पद में इसे स्थान दिया गया हैं। प्रस्तुत पद में समुच्चय जीव तथा नैरयिक से लेकर वैमानिक तक चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के संयत,
.असंयत, संयतासंयत और नोसंयत-नोअसंयत होने के विषय में प्ररूपणा की गई है। * संयत से सम्बन्धित चार भेदों का विचार समस्त जीवों के विषय में किया गया है। * संयत का अर्थ है जो महाव्रती, संयमी हो, सर्वविरत हो। असंयत का अर्थ है - जो सर्वथा अविरत,
असंयमी, अप्रत्याख्यानी हो। संयतासंयत का अर्थ है-जो देशविरत हो,श्रावकव्रती हो, विरताविरत हो तथा नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत का अर्थ - जो न तो संयत हो और न असंयत हो, न ही संयतासंयत हो, क्योंकि संयत भी साधक है, अभी सिद्धगतिप्राप्त नहीं है और असंयतासंयत तो और भी नीची श्रेणी पर है। इसलिए नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत में सिद्ध भगवान् को लिया गया है। इस पद का निष्कर्ष यह है कि नारक, एकेन्द्रिय, तीन विकलेन्द्रिय, भवनवासी वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक, ये सभी असंयत होते हैं, ये न तो संयत हो सकते हैं, न संयतासंयत । पंचेन्द्रियतिर्यञ्च संयत नहीं हो सकता, वह संयतासंयत हो सकता हैं। अथवा प्रायः असंयत होता है। मनुष्य में संयत, असंयत और संयतासंयत तीनों प्रकार सम्भव हैं। नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत सिद्ध भगवान् ही हो सकते हैं। आचार्य मलयगरि ने संयतपद का महत्त्व बताते हुए कहा है कि देवों, नारकों और तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों को सर्वविरतिरूप चारित्र या केवलज्ञान का परिणाम ही नहीं होता । वे श्रवण-मनन भी नहीं कर सकते और न जीवन में चारित्र धारण कर सकते हैं, इसके कारण वे पश्चात्ताप करते हैं, विषाद पाते हैं । अतः मनुष्यों को संयतपद की आराधना के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए। षट्खण्डागम के संयमद्वार में सामायिकशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसम्परायशुद्धिसंयत, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत, संयतासंयत और असंयत ऐसे भेद
करके १४ गुणस्थानों के माध्यम से विचारणा की गई है। १. पण्णवणासुत्तं भा. २, (प्रस्तावना-परिशिष्ट) पृ. १४४
२. षट्खण्डागम पु. १, पृ. ३६८