Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ बत्तीसवाँ संयतपद ]
[ १७७
गोमा ! मणूसा संजया वि असंजया वि, संजयासंजया वि, णो णोसंजयणोअसंजय णो- संजयासंजया । [१९७८ प्र.] भगवन् ! मनुष्य संयत होते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न है ।
[१९७८ उ.] गौतम ! मनुष्य संयत भी होते हैं, असंयत भी होते हैं, संयतासंयत भी होते हैं, किन्तु नोसंयतनो असंयत-नोसंयतासंयत नहीं होते हैं ।
१९७१. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा णेरड्या (सु. १९७५)।
[१९७९] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का कथन नैरयिकों के समान समझना चाहिए।
१९८०. सिद्धाणं पुच्छा ।
गोयमा ! सिद्धा नो संजया नो असंजया नो संजयासंजया, णोसंजय - णोअसंजय - णोसंजया - संजया ।
संजय अस्संजय मीसगा य जीवा तहेव मणुया य ।
संजयरहिया तिरिया, सेसा अस्संजया होंति ॥ २२९ ॥
[१९८० प्र.] सिद्धों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न हैं ।
[१९८० उ.] गौतम! सिद्ध न तो संयत होते हैं, न असंयत और न ही संयतासंयत होते हैं, किन्तु नोसंयतनो असंयत-नोसंयतासंयत होते हैं।
[ संग्रहणी - गाथार्थ - ] जीव और मनुष्य संयत, असंयत और संयतासंयत (मिश्र) होते हैं। तिर्यञ्च संयत नहीं होते, (किन्तु असंयत और संयतासंयता होते हैं)। शेष एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और देव (चारों जाति के ) तथा नारक असंयत होते हैं ॥२२१॥
॥ पण्णवणाए भगवतीए बत्तीसइमं संजयपयं समत्तं ॥
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विवेचन- संयत एवं असंयत पद का लक्षण - जो सर्वसावद्ययोगों से सम्यक् प्रकार से विरत हो चुके हैं। और चारित्रपरिणामों की वृद्धि के कारणभूत निरवद्य योगों में प्रवृत्त हुए हैं, वे संयत कहलाते हैं । अर्थात् -हिंसा आदि पापस्थानों से जो सर्वथा निवृत्त हो चुके हैं, वे संयत हैं। उनसे विपरीत असंयत हैं ।
संयतासंयत- जो हिंसादी से देश (आंशिकरूप) से विरत है ।
नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत- जो इन तीनों से भिन्न है ।
जीव में चारों का समावेश : कैसे ? - जीव संयत भी होते हैं, क्योंकि श्रमण संयत हैं। जीव असंयत भी होते हैं, क्योंकि नारकादि असंयत हैं। जीव संयतासंयत भी होते हैं, क्योकि पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य स्थूल प्राणातिपात आदि का त्याग करके देशसंयम के आराधक होते तथा जीव नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत भी होते हैं, क्योंकि सिद्धों में इन तीनों का निषेध पाया जाता है। सिद्ध भगवान् शरीर और मन से रहित होते हैं। अतएव उनमें निरवद्ययोग में प्रवृत्ति और सावद्ययोग से निवृत्ति रूप संयतत्व घटित नहीं होता । सावद्ययोग में प्रवृत्ति न होने से असंयतत्व भी नहीं पाया जाता तथा दोनों का सम्मिलितरूप संयतासंयतत्व भी इसी कारण सिद्धों में नहीं पाया जाता ।