Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्राथमिक]
[१७१.
पहले मतिज्ञान-विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ होगा, कालक्रम से यह पूर्व-अनुभव के स्मरण या जातिस्मरण ज्ञान के अर्थ में व्यवहृत होने लगा होगा। जो भी हो, संज्ञा शब्द है तो मतिज्ञान-विशेष ही, फिर वह संज्ञासंकेत-शब्द रूप में हो या चिन्हरूप में हो। उससे ज्ञान होने में स्मरण आवश्यक है। स्थानांगसूत्र में भी 'एगा सन्ना' ऐसा पाठ मिलता है। इसलिए प्राचीनकाल में संज्ञा नाम का कोई विशिष्ट ज्ञान तो प्रसिद्ध था ही। आवश्यकनियुक्ति में भी संज्ञा को अभिनिबोध (मतिज्ञान) कहा है। 'षट्खण्डागम' मूल के मार्गणाद्वार में संज्ञीद्वार है। परन्तु वहाँ संज्ञा का वास्तविक अर्थ क्या है, यह नहीं . बताया गया है। वहाँ संज्ञी-असंज्ञी की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ गुणस्थान तक के जीव संज्ञी हैं तथा एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव असंज्ञी हैं। फिर यह भी कहा है कि संज्ञी क्षायोपशमिक लब्धि से, असंज्ञी औदयिक भाव से और न-संज्ञी न-असंज्ञी क्षायिकलब्धि से होता है । इसके स्पष्टीकरण में 'धवला' में संज्ञी शब्द की दो प्रकार की व्याख्या की गई है, वह विचारणीय है- सम्यग् जानातीति संज्ञं-मनः, तदस्यास्तीति संज्ञी । नैकेन्द्रियादिना अतिप्रसंगः, तस्य मनसो भावात् । अथवा शिक्षाक्रियोपदेशालापग्राही संज्ञी। उक्तं च -
. 'सिक्खा-किरियुवदेसालावग्गाही मणोवलंबेण'।
जो जीवो सो सण्णी, तव्विवरीदो असण्णी दु ॥ इस दसरी व्याख्या में भी मन का आलम्बन तो स्वीकत है ही। तात्पर्य में इससे कोई अन्तर नहीं पड़ा। तत्वार्थसूत्र में 'संज्ञिनः समनस्काः ' (संज्ञी जीव मन वाले होते हैं), ऐसा कह कर भाष्य में इसका स्पष्टीकरण किया है कि यहाँ संज्ञी शब्द से वे ही जीव विवक्षित हैं, जिनमें संप्रधारण संज्ञा हो। सम्प्रधारण संज्ञा का लक्षण किया है - ईहापोहयुक्ता गुणदोषविचारणात्मिका सम्प्रधारणसंज्ञा-अर्थात् ईहा और अपोह से युक्त गुण-दोष का विचार करने वाली संप्रधारण संज्ञा है। इसका फलितार्थ यह हुआ कि समनस्क (मन
वाले) संज्ञी जीव वे ही होते हैं, जो सम्प्रधारणसंज्ञा के कारण संज्ञी कहलाते हों। * संज्ञा के इस लक्षण पर से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थान में प्रतिपादित आहारादि
संज्ञा तथा आहार-भय-परिग्रह-मैथुन-क्रोध-मान-माया-लोभ-शोक-सुख-दुःख-मोह-विचिकित्सासंज्ञा के
कारण कहलाने वाले 'संज्ञी' यहाँ विवक्षित नहीं हैं।' * कुल मिलाकर 'संज्ञीपद' से आत्मा के द्वारा होने वाले मतिज्ञानविशिष्ट तथा गुणदोषविचारणात्मक संज्ञा प्राप्त
करने की प्रेरणा मिलती है। १. (क) पण्णवणासुत्तं भाग २ (परिशिष्ट प्रस्तावनात्मक), पृ. १४२ (ख) स्थानांगसूत्र स्था. १, सू. २९-३२ (ग) आवश्यकनियुक्ति गा. १२, विशेषावश्यक गा. ३९४ २. (क) षट्खण्डागम, मूल पु. १, पृ. ४०८
(ख) वही, पुस्तक ७, पृ.१११-११२ (ग) धवला, पु. १, पृ. १५२ २. तत्त्वार्थ. भाप्य २।२५ ४. स्थानांग.स्था.४, स्था.१०