Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
[ प्रज्ञापनासूत्र ]
नौवाँ : योगद्वार
१९००. [ १ ] सजोगीसु जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो ।
[१९०० - १] सयोगियों में जीव और एकेन्द्रिय को छोडकर तीन भंग (पाये जाते हैं ।)
[२] मणजोगी वड्जोगी य जहा सम्ममिच्छद्दिट्ठी (सु. १८८९ ) । णवरं वइजोगो विगलिंदियाण वि । [१९००-२] मनोयोगी और वचनयोगी के विषय में (सू. १८८९ में उक्त) सम्यग्मिथ्यादृष्टि के समान वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह कि वचनयोग विकलेन्द्रियों में भी कहना चाहिए ।
[ ३ ] कायजोगीसु जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो।
[१९०० - ३] काययोगी जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग (पाये जाते हैं ।)
[४] अजोगी जीव- मणूसा- सिद्धा अणाहारग । दारं ९ ॥
[१९००-४] अयोगी समुच्चय जीव, मनुष्य और सिद्ध होते हैं और वे अनाहारक हैं।
[१४३
-
[नौवाँ द्वार ]
सम्बन्ध
विवेचन योगद्वार की अपेक्षा प्ररूपणा समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर अन्य सयोगी जीवों में पूर्वोक्त तीन भंग पाये जाते हैं। समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों में एक भंग ही पाया जाता है बहुत आहारक-बहुत अनाहारक, क्योंकि ये दोनों सदैव बहुत संख्या में पाये जाते हैं। मनोयोगी और वचनयोगी के में कथन सम्यग्मिथ्यादृष्टि के समान जानना चाहिए, अर्थात् वे एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से आहारक ही होते है, अनाहारक नहीं। यद्यपि विकलेन्द्रिय सम्यग्मध्यादृष्टि नहीं होते, किन्तु उनमें वचनयोग होता है, इसलिए यहाँ उनकी भी प्ररूपणा करनी चाहिए। समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष नारक आदि काययोगियों में पूर्ववत् तीन भंग कहना चाहिए। अयोगी समुच्चय जीव, मनुष्य और सिद्ध होते हैं, ये तीनों अयोगी एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से अनाहारक होते है ।"
दसवाँ : उपयोगद्वार
१९०१. [ १ ] सागाराणागारोवउत्तेसु जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो।
[१९०१-१] समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर अन्य साकार एवं अनाकार उपयोग से उपयुक्त जीवों में तीन भंग कहने चाहिए ।
[२] सिद्धा अणाहारगा । दारं १० ॥
[१९०१ २] सिद्ध जीव (सदैव) अनाहारक ही होते हैं।
-
विवेचन - उपयोगद्वार की अपेक्षा से प्ररूपणा • समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष साकार एवं अनाकार उपयोग से उपयुक्त जीवों में तीन भंग पाए जाते हैं। सिद्ध जीव चाहे साकरोपयोग वाला हो, चाहे अनाकारोपयोग से उपयुक्त हो, अनाहारक ही होते हैं ।
१. प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका, भाग ५, पृ. ६७९-६८०