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[प्रज्ञापनासूत्र]
[१४७ १९०६. भासा-मणपजत्तीए (अपजत्तएसु) जीवेसु पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु य तियभंगो, णेरइयदेव-मणुएसु छब्भंगा।
[१९०६] भाषा-मन:पर्याप्ति से अपर्याप्त समुच्चय जीवों और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में (बहुत्व की विवक्षा से) तीन भंग पाये जाते हैं । (पूर्वोक्त पर्याप्ति से अपर्याप्त) नैरयिकों, देवों और मनुष्यों में छह भंग पाये जाते हैं।
१९०७. सव्वपदेसु एकत्त-पुहत्तेणं जीवादीया दंडगा पुच्छाए भाणियव्वा। जस्स जं अस्थि तस्स तं पच्छिज्जड, जंणत्थितं ण पच्छिज्जड जाव भासा-मणपज्जत्तीए अपजएसणेरड्य-देव-मणुएस य छभंगा। सेसेसु तियभंगो। दारं १३॥
[१९०७] सभी (१३) पदों में एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से जीवादि दण्डकों में (समुच्चय जीव तथा चौबीस दण्डक) के अनुसार पृच्छा करनी चाहिए। जो पद जिसमें सम्भव न हो उसकी पृच्छा नहीं करनी चाहिए। (भव्यपद से लेकर) यावत् भाषा-मन:पर्याप्ति से अपर्याप्त नारकों, देवों और मनुष्यों में छह भंगों की वक्तव्यता पर्यन्त तथा नारकों, देवों और मनुष्यों से भिन्न समुच्चय जीवों और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में तीन भंगों की वक्तव्यता पर्यन्त समझना चाहिए।
[तेरहवाँ द्वार] ॥ बीओ उद्देसओ समत्तो ॥
॥ पण्णवणाए भगवतीए अट्ठावीसइमं आहारपयं समत्तं ॥ विवेचन - पर्याप्तिद्वार के आधार पर आहारक-अनाहारकप्ररूपणा - यद्यपि अन्य शास्त्रों में पर्याप्तियाँ छह मानी गई हैं, परन्तु यहाँ भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति दोनों का एक में समावेश करके पांच ही पर्याप्तियाँ मानी गई
आहारदि पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त समुच्चय जीवों और मनुष्यों में तीन-तीन भंग पायें जाते हैं, इन दो के सिवाय दूसरे जो पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त हैं, वे आहारक होते हैं, अनाहरक नहीं। एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में भाषामनःपर्याप्ति नहीं पाई जाती।
आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से अनाहारक होता है, आहारक नहीं, क्योंकि आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव विग्रहगति में ही पाया जाता है। उपपातक्षेत्र में आने पर प्रथम समय में ही वह आहारपर्याप्ति से पर्याप्त हो जाता है। अतएव प्रथम समय में वह आहारक नहीं कहलाता । बहुत्व की विवक्षा में बहुत अनाहारक होते हैं।
शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। जो विग्रहगति-समापन्न होता है, वह अनाहारक और उपपातक्षेत्र में आ पहुंचता है, वह आहारक होता है। ___ इन्द्रिय-श्वासोच्छ्वास-भाषा-मनःपर्याप्ति से अपर्याप्त - एकत्व की विवक्षा से कदाचित् आहारक कदाचित् अनाहारक होते हैं। बहुत्व की विवक्षा से अन्तिम तीन या (चार) पर्याप्तियों से अपर्याप्त के विषय में ६ भंग होते हैं(१) कदाचित् सभी अनाहारक, (२) कदाचित् सभी आहारक, (३) कदाचित् एक आहारक और एक अनाहारक,