________________
[ प्रज्ञापनासूत्र ]
[१९३१ उ.] गौतम ! पूर्ववत् (नारकादि के समान) जो पृथ्वीकायिक जीव मत्यज्ञान और श्रुत- अज्ञान के उपयोग वाले हैं, वे साकारोपयुक्त होते हैं तथा जो पृथ्वीकायिक जीव अचक्षुदर्शन के उपयोग वाले होते हैं, वे अनाकारोपयुक्त होते हैं। इस कारण से हे गौतम! यों कहा जाता है कि पृथ्वीकायिक जीव साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं। इसी प्रकार पूर्वोक्त कारणों से अप्कायिक, वायुकायिक, तेजस्कायिक और वनस्पतिकायिक साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं।
१५८]
१९३२. [ १ ] बेइंदियाणं अट्ठसहिया तहेव पुच्छा ।
गोयमा ! जाव जेणं बेइंदिया आभिणिबोहियणाण - सुयणाण-मतिअण्णाण सुयअण्णाणोवउत्ता ते णं बेइंदिया सागारोवउत्ता, जे णं बेइंदिया अचक्खुदंसणोवउत्ता ते णं बेइंदिया अणागारोवउत्ता, से तेणट्ठेणं गोमा ! एवं वुच्चति० ।
[१९३२ प्र.] भगवन्! द्वीन्द्रिय जीवों की (उपयोगयुक्तता के विषय में पूर्ववत्) कारण सहित पृच्छा है।
[१९३२ उ.] गौतम ? यावत् जो द्वीन्द्रिय आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, मत्यज्ञान और श्रुत- अज्ञान के उपयोग वाले होते हैं, वे साकारोपयुक्त होते हैं और जो द्वीन्द्रिय अचक्षुदर्शन के उपयोग से युक्त होते हैं, वे अनाकारोपयुक्त होते हैं। इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि द्वीन्द्रिय जीव साकारोपयुक्त भी होते हैं।
[ २ ] एवं जाव चउरिंदिया । णवरं चक्खुदंसणं अब्भइयं चउरिंदियाणं ।
[१८३२-२] इसी प्रकार ( त्रीन्द्रिय एवं ) यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में समझना चाहिए; विशेष यह है कि चतुरिन्द्रिय जीवों में चक्षुदर्शन अधिक कहना चाहिए।
१९३३. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया जहा णेरड्या (सु. १९२९ ) ।
[१९३३] पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों का ( कथन सू. १९२९ में उक्त) नैरयिकों के समान (जानना चाहिए।) १९३४. मणूसा जहा जीवा (सु. १९२८ ) ।
[१९३४] मनुष्यों के विषय में वक्तव्यता (सू. १९२८ में उक्त) समुच्चय जीवों के समान ( जानना चाहिए । ) १९३५. वाणमंतर - जोतिसिय-वेमाणिया जहा णेरड्या (सु. १९२९ ) ।
॥ पण्णवणाए भगवतीए एगूणतीसइमं उवओगपयं समत्तं ॥
[१९३५] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में नैरयिकों के समान (कथन करना चाहिए।) विवेचन प्रस्तुत (सू. १९१८ से १९३५ तक) आठ सूत्रों में समुच्चय जीवों और चौबीस - दण्डकवर्ती जीवों में साकारोपयोगयुक्तता एवं अनाकारोपयोगयुक्तता का कारण पूर्वक कथन किया गया है। कथन स्पष्ट है।
॥ प्रज्ञापना भगवती का उनतीसवाँ उपयोगपद समाप्त ॥
-