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[अट्ठाईसवाँ आहारपद] एकत्व की अपेक्षा से सर्वत्र कदाचित् आहारक तथा कदाचित् अनाहारक', ऐसा कथन करना चाहिए। ग्यारहवाँ : वेदद्वार
१९०२. [१] सवेदे जीवेगिंदियवजो तियभंगो।
[१९०२-१] समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर अन्य सब सवेदी जीवों के (बहुत्व की अपेक्षा से) तीन भंग होते हैं।
[२] इत्थिवेद-पुरिसवेदेसु जीवादीओ तियभंगो। [१९०२-२] स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीव आदि में तीन भंग होते हैं। [३] णपुंसगवेदए जीवेगिंदियवजो तियभंगो। [१९०२-३] नपुंसकवेदी में समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग होते हैं। [४] अवेदए जहा केवलणाणी (सु. १८९८ [४])। दारं ११॥
[१९०२-४] अवेदी जीवों का कथन (सु. १८९८-४ में उल्लिखित) केवलज्ञानी के कथन के समान करना चाहिए।
विवेचन - वेदद्वार के माध्यम से आहारक-अनाहारक प्ररूपणा - सवेदी जीवों में एकेन्द्रियों और समुच्चय जीवों को छोड़कर बहुत्वापेक्षया तीन भंग होते हैं, जीवों और एकेन्द्रियों में आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी। एकत्व की विवक्षा से सवेदी कदाचित् आहारक होता है, कदाचित् अनाहारक होता है।
बहुत्वापेक्षया - स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीव आदि में एकेन्द्रियों एवं समुच्च्य जीवों को छोड़ कर बहुत्व की विवक्षा से प्रत्येक के तीन भंग होते हैं । अवेदी का कथन केवलज्ञानी के समान है। एकत्व विवक्षया - स्त्रीवेद और पुरुषवेद के विषय में आहारक भी होता है और अनाहारक भी, यह एक ही भंग होता है। यहाँ नैरयिकों, एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी नहीं होते, अपितु नपुंसकवेदी होते हैं। बहुत्व की अपेक्षा से जीवादि में से प्रत्येक में तीन भंग होते हैं।
नपुंसकवेद में – एकत्व की विवक्षा से पूर्ववत् भंग कहना चाहिए, किन्तु यहाँ भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये नपुंसक नहीं होते। बहुत्व की अपेक्षा से जीवों और एकेन्द्रियों के सिवाय शेष में तीन भंग होते हैं । बहुत्व की अपेक्षा से अवेदी कदाचित् आहारक होता है कदाचित् अनाहारक, यह एक भंग होता है। बहुत्व की अपेक्षा से - अवेदी के बहुत आहारक और बहुत अनाहारक, यही एक भंग पाया जाता है । अवेदी मनुष्यों में तीन भंग होते हैं । अवेदी सिद्धों में बहुत अनाहारक यह एक भंग ही पाया जाता है। १. प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका, भाग ५, ६८० २. प्रज्ञापना मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भाग. २, पृ. ५१५