Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्र]
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उदाहरणार्थ – दसवें गुणस्थान वाले क्षपक को जितने काल का ज्ञानावरणीयकर्म का स्थितिबन्ध होता है, उसकी अपेक्षा श्रेणी चढ़ते हुए उपशमक को दुगुने काल का स्थितिबन्ध होता है फिर भी उसका काल होता है - अन्तर्मुहूर्त ही। इस प्रकार वेदनीयकर्म के साम्परायिकबन्ध की प्ररूपणा करते समय क्षपक का जघन्य स्थितिबन्ध १२ मुहुर्त का और उपशमक का २४ मुहूर्त का कहा है। नाम और गोत्रकर्म का क्षपक जीव आठ मुहूर्त का स्थितिबन्ध करता है, जबकि उपशमक १६ मुहूर्त का करता है। किन्तु उपशमक एवं क्षपक जीव का जघन्यबन्ध शेष सब बन्धों की अपेक्षा सर्वजघन्यबन्ध समझना चाहिए। इसीलिए कहा गया है – उपशमक एवं क्षपक जीव, जो सूक्ष्मसम्पराय अवस्था में हो वही ज्ञानावरणीयादि कर्मों का जघन्य स्थितिबन्धक है।'
मोहनीयकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक - बादरसम्पराय से युक्त उपशमक या क्षपक जीव मोहनीयकर्म की स्थिति का बन्धक होता है।
आयुकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक कौन और क्यों ? – जो जीव असंक्षेप्य-अद्धाप्रविष्ट होता है, उसकी आयु सर्वनिरुद्ध होती है। उसका आयुष्य आठ आकर्ष प्रमाण सबसे बड़ा काल होता है, आयु के बन्ध होते ही वह आयुष्य समाप्त हो जाता है। अत: असंक्षेप्याद्धाप्रविष्ट जीव आयुष्यबन्ध काल के चरम समय में अर्थात् – एक आकर्षप्रमाण अष्टम भाग में सर्वजघन्य स्थिति को बांधता है। वह स्थिति शरीर-पर्याप्ति और इन्द्रिय-पर्याप्ति को सम्पन्न करने में समर्थ और उच्छ्वास-पर्याप्ति को निष्पन्न करने में असमर्थ होती है। यहाँ असंक्षेप्याद्धा, सर्वनिरुद्ध और चरमकाल आदि कुछ पारिभाषिक शब्द हैं, उनके लक्षण इस प्रकार हैं - असंक्षेप्याद्धा - जिसका त्रिभाग आदि प्रकार से संक्षेप न हो सके.ऐसा अद्धा काल असंक्षेप्याद्धा कहलाता है। ऐसे जीव का आयुष्य सर्वनिरुद्ध होता है। अर्थात् उपक्रम के कारणों द्वारा आयुष्य अतिसंक्षिप्त किया हुआ होता है। ऐसा आयुष्य आयुष्य-बन्ध के समय तक ही सीमित होता है, आगे नहीं। चरमकाल समय - इस शब्द से सूक्ष्म अंश का ग्रहण नहीं करना चाहिए, किन्तु पूर्वोक्तकाल ही समझना चाहिए, क्योंकि उससे कम काल में आयु का बन्ध होना सम्भव नहीं।' कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति के बन्धकों की प्ररूपणा
१७४५. उक्कोसकालठितीयं णं भंते! णाणावरणि कम्मं कि णेरडओ बंधड़ तिरिक्खजोणिओ बंधड़ तिरिक्खजोणिणी बंधइ मणुस्सो बंधइ मणुस्सी बंधइ देवो बंधई देवी बंधइ ?
गोयमा! णेरइओ वि बंधति जाव देवी वि बंधति।
[१७४५ प्र.] भगवन् ! उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले ज्ञानावरणीयकर्म को क्या नारक बांधता है, तिर्यञ्च बांधता है, तिर्यञ्चिनी बांधती है, मनुष्य बंधता है, मनुष्य स्त्री बंधती है अथवा देव बांधता है या देवी बांधती है ?
१. प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ४३७ २. वही, भा. ५, पृ. ४४० ३. वही, भा. ५, पृ. ४४०-४४१