________________
१०२]
[ अट्ठाईसवाँ आहारपद ]
तथा बिना ही इच्छा के आहार हो जाए, वह अनाभोगनिर्वर्तित आहार है। इच्छापूर्वक आहार लेने में विभिन्न जीवों की पृथक्-पृथक् काल मर्यादाएँ हैं। परन्तु इच्छा के बिना लिया जाने वाला आहार तो निरन्तर लिया जाता है । फिर यह भी स्पष्ट किया गया है कि कौन जीव किस प्रकार का आहार लेता है ? वर्ण - गन्ध-रसस्पर्शगुणों से युक्त आहार लिया जाता है उसमें भी बहुत विविधता है। नारकों द्वारा लिया जाने वाला आहार अशुभवर्णादि वाला है और देवों द्वारा लिया जाने वाला आहार शुभवर्णादि वाला है। कोई ६ दिशा से तथा कोई तीन, चार, पाँच दिशाओं से आहार लेता है। आहाररूप में ग्रहण किए गये पुद्गल पांच इन्द्रियों के रूप मे तथा अंगोपांगों के रूप में परिणत होते हैं। शरीर भी आहारानुरूप होता है। आहार के लिए लिये जाने वाले पुद्गलों का असंख्यातवाँ भाग आहाररूप में परिणत होता है तथा उनके अनन्तवें भाग का आस्वादन होता है।
अन्तिम प्रकरण में यह भी बताया गया है कि चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में से कौन लोमाहार और कौन प्रक्षेपाहार (कवलाहार) करता है ? तथा किसके ओज-आहार होता है, किसके मनोभक्षण आहार होता है ? कौन जीव किस जीव के शरीर का आहार करता है ? इस तथ्य को यहाँ स्थल रूप से प्ररूपित किया गया है। सूत्रकृतांगसूत्र श्रुत. २, उ. ३. आहारपरिज्ञा- अध्ययन में तथा भगवतीसूत्र में इस तथ्य की विशेष विश्लेषणपूर्वक चर्चा की गई है कि पृथ्वीकायिकादि विभिन्न जीव वनस्पतिकाय आदि के अचित्त शरीर को विध्वस्त करके आहार करते है, गर्भस्थ मनुष्य आदि जीव अपने माता की रज और पिता के शुक्र आदि का आहार करते हैं। • स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थान में तिर्यञ्चों, मनुष्यों और देवों का चार-चार प्रकार का आहार बताया है जैसे
तिर्यञ्चों का चार प्रकार का आहार - (१) कंकोपम, (२) बिलोपम, (३) पाण (मातंग) मांसोपम और (४) पुत्रमांसोपम। मनुष्यों का चार प्रकार का आहार - अशन, पान, खादिम और स्वादिम। देवों का. चार प्रकार का आहार है - वर्णवान्, रसवान्, गन्धवान्, और स्पर्शवान् ।
܀
܀
आहार की अभिलाषा में देवों की आहाराभिलाषा, जिसमें वैमानिक देवों की आहाराभिलाषा बहुत लम्बे काल की, उत्कृष्ट ३३ हजार वर्ष तक की बताई गई है। इसलिए ज्ञात होता है कि चिरकाल के बाद होने वाली आहारेच्छा किसी न किसी पूर्वजन्म कृत संयम - साधना या पुण्यकार्य का सुफल है।
मनुष्य चाहे तो तपश्चर्या के द्वारा दीर्घकाल तक निराहार रह सकता है और अनाहारकता ही रत्नत्रयसाधना का अन्तिम लक्ष्य है। इसी के लिए संयतासंयत तथा संयत होकर अन्त में नो- संयत-नो असंयत-नोसंयतासंयत बनता है। यह इसके संयतद्वार में स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है।
कुल मिलाकर आहार सम्बन्धी चर्चा साधकों और श्रावकों के लिए ज्ञानवर्द्धक, रसप्रद, आहार-विज्ञानसम्मत एवं आत्मसाधनाप्रेरक है।
१. पण्णवणासुतं (मू.पा.टि.) भा. १. पू. ३९३ से ४०५ २. स्थानांगसूत्र, स्था. ४
३. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ टिप्पण) भा. १, पृ. ३९७ १८
४. पण्णवणासुतं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १. पृ. ४०३