Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्र]
[११३ णवरं तत्थ णं जे से आभोगणिव्वत्तिए से णं असंखेजसमइए अंतोमुहुत्तिए वेमायाए आहारट्टे समुप्पजइ। सेसं जहा पुढविक्काइयाणं (सु. १८०९) जाव आहच्च णीससंति, णवरं णियमा छद्दिसिं।
[१८१८ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ?
[१८१५ उ.] गौतम! इनका कथन (सू. १७९३ में उक्त) नारकों के समान समझना चाहिए। विशेष यह है कि उनमें जो आभोगनिर्वर्तित आहार है, उस आहार की अभिलाषा असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त में विमात्रा से उत्पन्न होती है। शेष सब कथन पृथ्वीकायिकों के समान कदाचित् निःश्वास लेते हैं यहाँ तक कहना चाहिए।
१८१६. बेइंदिया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते णं तेसिं पोग्गलाणं सेयालंसि कतिभागं आहारेंति कतिभागं अस्साएंति ? एवं जहा णेरइयाणं (सु. १८०३)। __ [१८१३ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे भविष्य में उन पुद्गलों के कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का आस्वादन करते हैं?
[१८१३ उ.] गौतम! इस विषय में (सू. १८०३ में उक्त) नैरयिकों के समान कहना चाहिए। १८१७. बेइंदिया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते किं सव्वे आहारेंति, णो सव्वे आहारेंति ?
गोयमा! बेइंदियाणं दुविहे आहारे पण्णत्ते, तं जहा – लोमाहारे य पक्खेवाहारे य। जे पोग्गले लोमाहारत्ताए गेण्हंति ते सव्वे अपरिसेसे आहारेंति, जे पोग्गले पक्खेवाहारत्ताए गेण्हंति तेसिं असंखेजइभागमाहारेंति णेगाइं चणं भागसहस्साइं अफासाइजमाणाणं अणासाइजमाणाणं विद्धंसमागच्छति।
[१८१७ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या वे उन सबका आहार करते हैं अथवा उन सबका आहार नहीं करते ? (अर्थात् उन सबके एक भाग का आहार करते हैं ?) ___ [१८१७ उ.] गौतम! द्वीन्द्रिय जीवों का आहार दो प्रकार का कहा है । यथा - लोमाहार और प्रक्षेपाहार । वे जिन पुद्गलों को लोमाहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन सबका समग्ररूप से आहार करते हैं और जिन पुद्गलों को प्रक्षेपाहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उनमें से असंख्यातवें भाग का ही आहार करते हैं उनके बहुत से (अनेक) सहस्र भाग यों ही विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं, न ही उनका बाहर-भीतर स्पर्श हो पाता है और न ही आस्वादन हो पाता है।
१८१८. एतेसि णं भंते! पोग्गलाणं अणासाइजमाणाणं अफासाइज्जमाणाण य कतरे कतरेहिंतो ४? गोयमा! सव्वत्थोवा पोग्गला अणासाइजमाणा, अफासाइजमाणा अणंतगुणा।
[१८१८ प्र.] भगवन् ! इन पूर्वोक्त प्रक्षेपाहारपुद्गलों में से आस्वादन न किये जाने वाले तथा स्पृष्ट न होने वाले पुद्गलों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ?
[१८१८ उ.] गौतम! सबसे कम आस्वादन न किये जाने वाले पुद्गल हैं, उनसे अनन्तगुणे (पुद्गल) स्पृष्ट न होने वाले हैं। १. ४ सूचक चिह्न - 'अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?' इस पाठ का सूचक हैं। सं.