Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[अट्ठाईसवाँ आहारपद] [१८९२] संयतासंयतजीव, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य, ये एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं।
१८९३. णोसंजए-णोअसंजए-णोसंजयासंजए जीवे सिद्धे य एते एगत्तेण वि पुहत्तेण वि णो आहारगा, अणाहारगा । दारं ६ ॥
[१८९३] नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत जीव और सिद्ध, ये एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से आहारक नहीं होते, किन्तु अनाहारक होते हैं। [छठा द्वार] __विवेचन – संयत-संयतासंयत, असंयत और नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत की परिभाषा - जो संयम (पंचमहाव्रतादि) को अंगीकार करे अर्थात् विरत हो उसे संयत कहते हैं । जो अणुव्रती श्रावकत्व अंगीकार करे अर्थात् देशविरत हो, उसे संयतासंयत कहते हैं। जो अविरत हो, न तो साधुत्व को अंगीकार करे और न ही श्रावकत्व को, वह असंयत है और जो न तो संयत है न संयतासंयत है और न असंयत है, वह नोसंयत-नोअंसंयतनोसंयतासंयत कहलाता है। संयत समुच्चय जीव और मनुष्य ही हो सकता है, संयतासंयत समुच्चय जीव , मनुष्य एवं पंचेन्द्रियतिर्यञ्च हो सकता है, नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत अयोगिकेवली तथा सिद्ध होते हैं। ___ संयत जीव और मनुष्य एकत्वापेक्षया केवलिसमुद्घात और अयोगित्वावस्था की अपेक्षा अनाहारक और अन्य समय में आहारक होता है। ___बहुत्व की अपेक्षा से तीन भंग – (१) सभी संयत आहारक होते हैं; यह भंग तब घटित होता है जब कोई भी केवलीसमुद्घातावस्था में या अयोगी में न हो। (२) बहुत संयत आहारक और कोई एक अनाहारक, यह भंग भी तब घटित होता है जब एक केवली समुद्घातावस्था में या शैलेशी अवस्था में होता है। (३) बहुत संयत आहारक और बहुत अनाहारक, यह भंग भी तब घटित होता है जब बहुत-से संयत केवलीसमुद्घातावस्था में हों या शैलेशी अवस्था में हों।
असंयत में एकत्वापेक्षा से - एक आहारक, एक अनाहारक यह एक ही विकल्प होता है। बहुत्व की अपेक्षा से-समुच्चय जीवों और असंयत पृथ्वीकायिकादि प्रत्येक में बहुत आहारक और बहुत अनाहारक यही एक भंग होता है। असंयत नारक से वैमानिक तक (समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर) प्रत्येक में पूर्ववत् तीनतीन भंग होते हैं।
संयतासंयत - देशविरतजीव, मनुष्य और पंचेन्द्रियतिर्यञ्च ये तीनों एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से आहारक ही होते हैं, अनाहारक नहीं, क्योंकि मनुष्य और तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय के सिवाय किसी जीव में देशविरतिपरिणाम उत्पन्न नहीं होता और संयतासंयत सदैव आहारक ही होते हैं, क्योंकि अन्तरालगति और केवलिसमुद्घात आदि अवस्थाओं में देशविरति-परिणाम होता नहीं है।
नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत जीव व सिद्ध - एकत्व बहुत्व अपेक्षा से अनाहारक ही होते हैं, आहारक नहीं, क्योंकि शैलेशी प्राप्त त्रियोगरहित और सिद्ध अशरीरी होने के कारण आहारक होते ही नहीं हैं।
१. अभि.रा. को. भा. २, पृ. ५१३