Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
[ प्रज्ञापनासूत्र]
[१३७
मिथ्यादृष्टियों में - एकत्व की विवक्षा से सर्वत्र कदाचित् एक आहारक एक अनाहारक, यही एक भंग पाया जाता है। बहुत्व की विवक्षा से समुच्चय जीव और पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टियों में से प्रत्येक के बहुत आहारक बहुत अनाहारक, यह एक ही भंग पाया जाता है। इनके अतिरिक्त सभी स्थानों में पूर्ववत् तीन-तीन भंग कहने चाहिए । यहाँ सिद्ध सम्बन्धी आलापक नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्ध मिथ्यादृष्टि होते ही नहीं हैं। ___सम्यग्मिथ्यादृष्टि में आहारकता या अनाहारकता - सम्यग्मिथ्यादृष्टि सभी जीव एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से, एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों को छोडकर आहारक होते हैं, क्योंकि संसारी जीव विग्रहगति में अनाहारक होते हैं। मगर सम्यग्मिथ्यादृष्टि विग्रहगति में होते नहीं, क्योंकि सम्यग्मिथ्यादृष्टि की अवस्था में मृत्यु नहीं होती। एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों का कथन यहाँ इसलिए नहीं करना चाहिए कि वे सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते। छठा : संयतद्वार
१८९०. [१] संजए णं भंते! जीवे कि आहारए अणाहारए ? गोयमा! सिय आहारए सिय अणाहारए। [१८९०-१ प्र.] भगवन् ! संयत जीव आहारक होता है या अनाहारक होता है ? [१८९०-१ उ.] गौतम! वह कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। [२] एवं मणूसे वि। [१८९०-२] इसी प्रकार मनुष्य संयत का भी कथन करना चाहिए। [३] पुहत्तेण तियभंगो। [१८९०-३] बहुत्व की अपेक्षा से (समुच्चय जीवों और मनुष्यों में) तीन-तीन भंग (पाये जाते हैं।) १८९१. [१] अस्संजए पुच्छा । गोयमा! सिय आहारए सिय अणाहारए। [१८९१-१ प्र.] भगवन् ! असंयत जीव आहारक होता है या अनाहारक होता है? [१८९१-१ उ.] गौतम! वह कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक भी होता है। [२] पुहत्तेणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। [१८९१-२] बहुत्व की अपेक्षा जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर इनमें तीन भंग होते हैं।
१८९२. संजयासंजए जीवे पंचेंदियतिरिक्खजोणिए मणूसे य एते एंगत्तेण वि पुहत्तेण वि आहारगा, णो अणाहारगा।
१. (क) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष. भा. २, पृ. ५१३
(ख) प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी भा. ५, पृ. ६५७-५८ २. वही, भा. ५, पृ. ६५७-५८