Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[अट्ठाईसवाँ आहारपद] १८२७. वाणमंतरा जहा णागकुमारा (सु. १८०३ [२])। [१८२७] वाणव्यन्तर देवों का आहार सम्बन्धी कथन नागकुमारों के समान जानना चाहिए।
१८२८. एवं जोइसिया वि। णवरं आभोगणिव्वत्तिए जहण्णेणं दिवस-पुहत्तस्स, उक्कोसेण वि दिवसपुहत्तस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ।
[१८२८] इसी प्रकार ज्योतिष्कदेवों का भी कथन है। किन्तु उन्हें आभोगनिर्वर्तित आहार की अभिलाषा जघन्य दिवस-पृथक्त्व में और उत्कृष्ट भी दिवस-पृथक्त्व में उत्पन्न होती है।
विवेचन - तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय आदि की आहारसम्बन्धी विशेषता - उनको आभोगनिर्वर्तित आहार की इच्छा जघन्य अन्तर्मुहूर्त में और उत्कृष्ट षष्ठभक्त में (दो दिन के बाद) होती है। यह कथन देवकुरु - उत्तरकुरु क्षेत्रों के तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों की अपेक्षा से समझना चाहिए। मनुष्यों को आभोगनिर्वर्तित आहार की अभिलाषा जघन्य अन्तर्मुहूर्त से और उत्कृष्ट अष्टमभक्त से (तीन दिन के बाद) होती है। यह कथन भी देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्रों के मनुष्यों की अपेक्षा से समझना चाहिए। इन दोनों द्वारा गृहीत आहार्य पुद्गल भी पंचेन्द्रियों की विमात्रा के रूप में पुनः पुनः परिणत होते हैं। वाणव्यन्तर और ज्योतिष देवों का अन्य सब कथन तो नागकुमार के समान है, लेकिन आभोगनिर्वर्तित आहाराभिलाषा जघन्य और उत्कृष्ट दिवसपृथक्त्व (दो दिन से लेकर नौ दिनों) से होती है। इन दोनों प्रकार के देव
देवों की आयु पल्योपम के आठवें भाग की होने से स्वभाव से ही दिवस-पृथक्त्व व्यतीत होने पर इन्हें आहार की अभिलाषा होती है। वैमानिक देवों में आहारादि सात द्वारों की प्ररूपणा (२-८)
१८२९. एवं वेमाणिया वि। णवरं आभोगणिव्वत्तिए जहण्णेणं दिवस-पुहत्तस्स, उक्कोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं आहारट्टे समुप्पजइ। सेसं जहा असुरकुमाराणं (सु. १८०६ [१]) जाव ते तेसिं भुजो २ परिणमंति।
[१८२९] इसी प्रकार वैमानिक देवों की भी आहारसम्बन्धी वक्तव्यता जाननी चाहिए। विशेषता यह है कि इनको आभोगनिर्वर्तित आहार की अभिलाषा जघन्य दिवस-पृथक्त्व में और उत्कृष्ट तैतीस हजार वर्षों में उत्पन्न होती है। शेष वक्तव्यता (सु. १८०६-१ में उक्त) असुरकुमारों के समान उनके उन पुद्गलों का बार-बार परिणमन होता है, यहाँ तक कहनी चाहिए।
१८३०. सोहम्मे आभोगणिव्वत्तिए जहण्णेणं दिवसपुहत्तस्स, उक्कोसेणं दोण्हं बाससहस्साणं आहारट्ठे समुप्पज्जइ।
[१८३०] सौधर्मकल्प में आभोगनिवर्तित आहार की इच्छा जघन्य दिवस-पृथक्त्व से और उत्कृष्ट दो हजार वर्ष से समुत्पन्न होती है।
१८३१. ईसाणाणं पुच्छा। १. प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ५. पृ. ५८९ से ५९१ तक