Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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१२८]
[अट्ठाईसवाँ आहारपद]
१८६९. [१] णेरइयाणं पुच्छा।
गोयमा! सव्वे वि ताव होज्जा आहारगा १ अहवा आहारगा य अणाहारगे य २ अहवा आहरगा य अणाहारगा य३।
[१८६९-१. प्र.] भगवन् ! (बहुत) नैरयिक आहारक होते हैं या अनाहारक होते हैं ?
[१८६९-१ उ.] गौतम! (१) वे सभी आहारक होते हैं, (२) अथवा बहुत आहारक और कोई एक अनाहारक होता है, (३) या बहुत आहारक और बहुत अनाहारक होते हैं।
[२] एवं जाव वेमाणिया। णवरं एगिदिया जहा जीवा।
[१८७०] इसी तरह वैमानिक-पर्यन्त जानना चाहिये। विशेष यह है कि एकेन्द्रिय जीवों का कथन बहुत जीवों के समान समण्ना चाहिए।
१८७०. सिद्धाणं पुच्छा। गोयमा णो आहारगा, अणाहारगा। दारं १। [१८७० प्र.] (बहुत) सिद्धों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न है। [१८७० उ.] गौतम! सिद्ध आहारक नहीं होते, वे अनाहारक ही होते हैं। [प्रथम द्वार].
विवेचन – जीव स्यात् आहारक स्यात् अनाहारक : कैसे? – विग्रहगति, केवलि-समुद्घात, शैलेशी अवस्था और सिद्धावस्था की अपेक्षा समुच्चय जीव को अनाहारक और इनके अतिरिक्त अन्य अवस्थाओं की अपेक्षा आहारक समझना चाहिए। कहा भी हैं -
'विग्गहगइमावन्ना केवलिणो समोहया अजोगी य।
सिद्धा य अणाहारा सेसा आहार गा जीवा॥' समुच्चय जीव की तरह नैरयिक भी कथंचित् आहारक और कथंचित् अनाहारक होता है। असुरकुमार से लेकर वैमानिक देव तक सभी जीव कथंचित् आहारक और कथंचित् अनाहारक होते हैं।
बहुवचन की अपेक्षा – कोई जीव आहारक होते हैं, कोई अनाहारक भी होते हैं । सभी नारक आहारक होते हैं, अथवा बहुत नारक आहारक होते हैं, कोई एक अनाहारक होता है, अथवा बहुत-से आहारक और बहुत-से अनाहारक होते हैं। यही कथन वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। एकेन्द्रिय जीवों का कथन समुच्चय जीवों के समान समझना। अर्थात् वे बहुत से अनाहारक और बहुत से आहरक होते हैं।
सिद्ध एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा सदैव अनाहारक होते हैं।
विग्रहगति की अपेक्षा से जीव अनाहारक - विग्रहगति से भिन्न समय में सभी जीव आहारक होते हैं और १. (क) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, अभि. रा. को. भा. २, पृ. ५१०
(ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ५, पृ. ६२८ से ६३० तक २. वही, भा. ५, पृ. ६२८