Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्र]
[१३३ १८८२. [१] पुहत्तेणं णोसण्णी-णोअसण्णी जीवा आहारगा वि अणाहारगा वि। [१८८२-१] बहुत्व की अपेक्षा से नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी होते हैं। [२] मणूसेसु तियभंगो। [१८८२-२] (बहुत्व की अपेक्षा से नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी) मनुष्यों में तीन भंग (पाये जाते हैं।) [३] सिद्धा अणाहारगा। दारं ३॥ १८८२. (बहुत-से) सिद्ध अनाहारक होते हैं।
[तृतीय द्वार] विवेचन-संज्ञी-असंज्ञी : स्वरूप- जो मन से युक्त हों, वे संज्ञी कहलाते हैं । असंज्ञी अमनस्क होता है। प्रश्न होता है-संज्ञी जीव के भी विग्रहगति में मन नहीं होता, ऐसी स्थिति में अनाहारक कैसे? इसका समाधान यह है कि विग्रहगति को प्राप्त होने पर भी जो जीव संज्ञी के आयुष्य का वेदन कर रहा है, वह उस समय मन के अभाव में भी संज्ञी ही कहलाता है, जैसे-नारक के आयुष्य का वेदन करने के पश्चात् विग्रहगति प्राप्त नरकगामी जीव नारक ही कहलाता है।
एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय मनोहीन होने के कारण संज्ञी नहीं होते, इसलिए यहाँ संज्ञीप्रकरण में एकेन्द्रिय और विंकलेन्द्रिय के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए।
ज्योतिष्क और वैमानिकों में असंज्ञी की पृच्छा नहीं - ज्योतिष्क और वैमानिकों में असंज्ञीपन का व्यवहार नहीं होता, इसलिए इन दोनों में असंज्ञी का आलापक नहीं कहना चाहिए।
नसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव में आहारकता-अनाहारकता - ऐसा जीव एकत्व की विवक्षा से कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है, क्योंकि केवलीसमुद्घातावस्था के अभाव में आहारक होता है, शेष अवस्था में अनाहारक होता है । बहुत्व की विवक्षा से इनमें दो भंग पाए जाते हैं । यथा - (१) आहारक भी नोसंज्ञीनोअसंज्ञी जीव बहुत होते हैं, क्योंकि समुद्घात अवस्था से रहित केवली बहुत पाये जाते हैं। सिद्ध अनाहारक होते हैं, इसलिए अनाहारक भी बहुत पाये जाते हैं। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी मनुष्यों में तीन भंग पाये जाते हैं - (१) जब कोई भी केवलीसमुद्घातावस्था में नहीं होता, तब सभी आहारक होते हैं, यह प्रथम भंग, (२) जब बहुत-से मनुष्य समुद्घातावस्था में हों और एक केवलीसमुद्घातगत हो, तब दूसरा भंग, (३) जब बहुत-से केवलीसमुद्घातावस्था को प्राप्त हों, तब तीसरा भंग होता हैं। चतुर्थ : लेश्याद्वार
१८८३. [१] सलेसे णं भंते! जीवे किं आहारए अणाहारए ? गोयमा! सिय आहारए सिय अणाहारए। [१८८३-१ प्र.] भगवन! सलेश्य जीव आहारक होता है या अनाहारक होता है ?
१. (क) अभि. रा. कोष. भा. २, पृ. ५११
(ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी. भा. ५, पृ. ६४२