Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[अट्ठाईसवाँ आहारपद] दसवाँ : लोमाहारद्वार
१८५९. णेरइया णं भंते! किं लोमाहारा पक्खेवाहारा ? गोयमा! लोमाहारा, णो पक्खेवाहारा। [१८५९ प्र.] भगवन् ! नारक जीव लोमाहारी हैं या प्रक्षेपाहारी हैं ? [१८५९ उ.] गौतम! वे लोमाहारी हैं, प्रक्षेपाहारी नहीं हैं। १८६०. एवं एगिंदिया सव्वे देवा या भाणियव्वा जाव वेमाणिया। [१८६०] इसी प्रकार एकेन्द्रिय जीवों, वैमानिक तक सभी देवों के विषय में कहना चाहिए। १८६१. बेइंदिया जाव मणूसा लोमाहारा वि पक्खेवाहारा वि। [१८६१] द्वीन्द्रियों से लेकर मनुष्यों तक लोमाहारी भी हैं, प्रक्षेपाहारी भी हैं।
विवेचन - चौबीस दण्डकों में लोमाहारी-प्रक्षेपाहारी-प्ररूपणा- लोमाहारी का अर्थ है-रोमों (रोओं) द्वारा आहार ग्रहण करने वाले तथा प्रक्षेपाहारी का अर्थ है – कवलाहारी-ग्रास (कौर) हाथ में लेकर मुख में डालने वाले जीव। चौबीस दण्डकों में नारक, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक और एकेन्द्रिय जीव लोमाहारी हैं, प्रक्षेपाहारी नहीं, क्योंकि नारक और चारों प्रकार के देव वैक्रियशरीरधारी होते हैं, इसलिए तथाविध स्वभाव से ही वे लोमाहारी होते हैं। उनमें कवलाहार का अभाव है। पृथ्वीकायिकादि पांच प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों के मुख नहीं होता, अतएव उनमें प्रक्षेपाहार का अभाव है। किन्तु द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च एवं मनुष्य लोमाहारी भी होते हैं और कवलाहारी (प्रक्षेपाहारी) भी। नारकों का लोमाहार भी पर्याप्त नारकों का ही जानना चाहिए, अपर्याप्तकों का नहीं। ग्यारहवाँ : मनोभक्षीद्वार
१८६२. णेरड्या णं भंते! किं ओयाहारा मणभक्खी? गोयमा! ओयाहारा, णो मणभक्खी। [१८६२ प्र.] भगवन्! नैरयिक जीव ओज-आहारी होते हैं, अथवा मनीभक्षी ? [१८६२ उ.] गौतम! वे ओज-आहारी होते हैं, मनोभक्षी नहीं। १८६३. एवं सव्वे ओरालियसरीरा वि। [१८६३.] इसी प्रकार सभी औदारिकशरीरधारी जीव भी ओज-आहार वाले होते हैं। १८६४. देवा सव्वे जाव वेमाणिया ओयाहारा वि मणभक्खी वि। तत्थ णं जे ते मणभक्खी देवा तेसि
१. वही भा. ५ पृ. ६०६ से ६०७ तक २. प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा. ५, पृ.६०९-६१०