Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ प्रज्ञापनासूत्र ]
[१०९
सर्वतः आहारादि का अर्थ सर्वतः आहार अर्थात् समस्त आत्मप्रदेशों से आहार करते हैं, सर्वआत्मप्रदेशों से आहार परिणमाते हैं, सर्वतः उच्छ्वास- निःश्वास लेते हैं, सदा आहार करते हैं, सदा परिणत करते हैं, सदा उच्छ्वास- नि:श्वास लेते हैं। कदाचित् आहार और परिणमन करते तथा उच्छ्वास-नि:श्वास लेते है ।
आहार और आस्वादन कितने-कितने भाग का ? • नारक आहार के रूप में जितने पुद्गलों को ग्रहण करते हैं, उनके असंख्यातवें भाग का आहार करते हैं, शेष पुद्गलों का आहार नहीं हो पाता। वे जितने पुद्गलों का आहार करते हैं, उनके अनन्तवें भाग का आस्वादन करते हैं। शेष का आस्वादन न होने पर भी शरीर के रूप में परिणत हो जाते है ।' (छठा द्वार)
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सभी आहाररूप में गृहीत पुद्गलों का या उनके एक भाग का आहार जिन त्यक्तशेष एवं शरीरपरिणाम के योग्य पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन सभी पुद्गलों का आहार करते हैं, सबके एक भाग का नही, क्योंकि वे आहार्यपुद्गल त्यक्तशेष और आहार परिणाम के योग्य ही ग्रहण किये हुए होते हैं।
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आहाररूप में गृहीत पुद्गल किस रूप में पुनः परिणत ? - आहार के रूप में नारकों द्वारा ग्रहण किये हुए वे पुद्गल श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, आदि पांचों इन्द्रियों के रूप में पुनः पुनः परिणत होते हैं । किन्तु इन्द्रियरूप में परिणत होने वाले वे पुद्गल शुभ नहीं, अशुभरूप ही होते हैं, अर्थात् वे पुद्गल अनिष्टरूप में परिणत होते हैं। जैसे मक्खियों को कपूर, चन्दन आदि शुभ होने पर भी अनिष्ट प्रतीत होते हैं, तैसे ही शुभ होने पर भी किन्हीं जीवों को वे पुद्गल अनिष्ट प्रतीत होते हैं। बल्कि अकान्त ( अकमनीय- देखते समय सुन्दर न लगें ), अप्रिय ( देखते समय भी अन्त:करण को प्रिय न लगें ), अशुभ वर्ण- गन्ध-रस-स्पर्श वाले, अमनोज्ञ - विपाक के समय क्लेशजनक होने के कारण मन में आह्लाद उत्पन्न करने वाले नहीं होते हैं।
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अमनाम जो भोज्यरूप में प्राणियों को ग्राह्य न हों, अनीप्सित जो आस्वादन करने योग्य नहीं होते, अभिध्य • जिनके विषय में अभिलाषा भी उत्पन्न न हो, इस रूप में परिणत होते हैं तथा वे पुद्गल भारीरूप में परिणत होते हैं, लघुरूप में नहीं। (अष्टमद्वार)
भवनपतियों के सम्बन्ध में आहारार्थी आदि सात द्वार (२-८)
१८०६. [ १ ] असुरकुमारा णं भंते! आहारट्ठी ?
हंता! आहारट्ठी एवं जहा णेरइयाणं तहा असुरकुमाराण वि भाणियव्वं जाव ते तेसिं भुज्जो भुज्जो परिणमति । तत्थ णं जे से आभोगणिव्वत्तिए से णं जहणणेणं चउत्थभत्तस्स उक्कोसेणं सतिरेगस्स वाससहस्सस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ । ओसण्णकारणं पडुच्च वण्णओ हालिद्द-सुक्किलाइ गंधओ सुब्भिगंधाई रसओ अंविलमहुराई फासओ मउय - लहुअ - णिगुण्हाई तेसि पोराणे वण्णगुणे जाव फासिंदियत्ताए जाव मणामत्ताए · इच्छियत्ताए अभिज्झियत्ताए उड्डत्ताए णो अहत्ताए, सुहत्ताए णो दुहत्ताए ते तेसिं भुज्जो २ परिणमति । सेसं जहा रइयाणं ।
[१८०६-१ प्र.] भगवन् ! क्या असुरकुमार आहारार्थी होते हैं ?
१ प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ५, पृ. ५५५ से ५५९ तक