________________
११०]
[ अट्ठाईसवाँ आहारपद ]
[१८०६ - १ उ. ] हाँ, गौतम! वे आहारार्थी होते हैं।
जैसे नारकों की वक्तव्यता कही, वैसे ही असुरकुमारों के विषय में यावत् उनके पुद्गलों का बार-बार परिणमन होता है यहाँ तक कहना चाहिए। उनमें जो आभोगनिर्वर्तित आहार है उस आहार की अभिलाषा जघन्य चतुर्थ-भक्त पश्चात् एवं उत्कृष्ट कुछ अधिक सहस्रवर्ष में उत्पन्न होती है ।
बाहुल्यरूप कारण की अपेक्षा से वे वर्ण से – पीत ओर श्वेत, गन्ध से – सुरभिगन्ध वाले, रस से अम्ल और मधुर तथा स्पर्श से - मृदु, लधु, स्निग्ध और उष्ण पुद्गलों का आहार करते हैं। (आहार किये जाने वाले) उन (पुद्गलों) के पुराने वर्ण- गन्ध-रस-स्पर्श-गुण को विनष्ट करके, अर्थात् पूर्णतया परिवर्तित करके, अपूर्व यावत्
वर्ण- गन्ध-रस-स्पर्श-गुण को उत्पन्न करके ( अपने शरीर - क्षेत्र में अवगाढ़ पुद्गलों का सर्व- आत्मप्रदेशों से आहार करते हैं। आहाररूप में गृहीत वे पुद्गल श्रोत्रेन्द्रियादि पांच इन्द्रियों के रूप में तथा इष्ट, कान्त, प्रिय, शुभ, ) मनोज्ञ, मनाम इच्छित अभिलाषित रूप में परिणत होते हैं । भारीरूप में नहीं हल्के रूप में, सुखरूप में परिणत होते हैं, दुःखरूप में नहीं। (इस प्रकार असुरकुमारों द्वारा गृहीत) वे आहार्य पुद्गल उनके लिए पुनः पुनः परिणत होते हैं। शेष कथन नारकों के कथन के समान जानना चाहिए ।
-
[ २ ] एवं जाव थणियकुमाराणं । णवरं आभोगणिव्वत्तिए उक्कोसेणं दिवसपुहत्तस्स आहारट्ठे समुप्पज्जति । [१८०६-२] इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक का कथन असुरकुमारों के समान जानना चाहिए। विशेष यह है कि इनका आभोगनिर्वर्तित आहार उत्कृष्ट दिवस पृथक्त्व से होता है।
-
विवेचन - असुरकुमारों आदि की आहाराभिलाषा असुरकुमारों को बीच-बीच में एक-एक दिन छोड़ कर आहार की अभिलाषा होती है, यह कथन दस हजार वर्ष की आयु वाले असुरकुमारों की अपेक्षा से समझना चाहिए । उत्कृष्ट अभिलाषा कुछ अधिक सातिरेक सागरोपम की स्थिति वाले बलीन्द्र की अपेक्षा से है। शेष भवनपतियों का आभोगनिर्वर्तित आहार उत्कृष्ट दिवस - पृथक्त्व से होता है। यह कथन पल्योपम के असंख्यातवें भाग की आयु तथा उससे अधिक आयु वालों की अपेक्षा से समझना चाहिए। असुरकुमार त्रसनाडी में ही होते हैं। अतएव वे छहों दिशाओं से पुद्गलों का आहार कर सकते हैं। आहार सम्बन्धी शेष कथन मूलपाठ में स्पष्ट है।' एकेन्द्रियों में आहारार्थी आदि सात द्वार (२-८)
१८०७. पुढविकाइया णं भंते! आहारट्ठी ?
हंता! आहारट्ठी ।
[१८०७ प्र.] भगवन्! क्या पृथ्वीकायिक जीव आहारार्थी होते हैं ?
[१८०७ उ.] गौतम! वे आहारार्थी होते हैं।
१८०८. पुढविक्वाइयाणं भंते! केवतिकालस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ ?
गोयमा! अणुसमयं अविरहिए आहारट्ठे समुप्पज्जइ ।
[१८०८ प्र.] भगवन्! पृथ्वीकायिक जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ?
१. प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका, भा. ५, पृ. ५५५ से ५५९ तक