Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अट्ठावीसइमं आहारपयं अट्ठाईसवाँ आहारपद
प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र के आहारपद में सांसारिक जीवों और सिद्धों के आहर-अनाहार की दो उद्देशकों के ग्यारह और
तेरह द्वारों के माध्यम से विस्तृत चर्चा की गई है। आत्मा मूल स्वभावतः निराहारी है, क्योंकि शुद्ध आत्मा (सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा) के शरीर, कर्म मोह आदि नहीं होते। निरंजन-निराकार होने से उसे आहार की कदापि इच्छा नहीं होती। जैसा सिद्धों का स्वरूप है, वैसा ही निश्चयनय दृष्टि से आत्मा का स्वरूप है। अतः विविध दार्शनिकों, साधकों और विचारकों के मन में प्रश्न का उद्भव हुआ कि जब आत्मा अनाहारी है तो भूख क्यों लगती है ? मनुष्य, पशु-पक्षी आदि क्षुधानिवृत्ति के लिए आहार क्यों करते हैं ? यदि शरीर और क्षुधावेदनीय आदि कर्मो के कारण प्राणियों को आहार करना पड़ता है, तब ये प्रश्न उठते हैं कि सिद्ध तो अनाहारक होते हैं, किन्तु नारक से लेकर वैमानिक तक चौबीस दण्डकवर्ती जीव सचित्त, अचित्त या मिश्र, किस प्रकार का आहार करते हैं ? उन्हें आहार की
है या नहीं? इच्छा होती है तो कितने काल के पश्चात् होती है? कौनसा जीव किस वस्तु का आहार करता है? क्या वे सर्व आत्मप्रदेशों से आहार लेते है या एकदेश से? क्या वे जीवन में बार-बार आहार करते हैं या एक बार ? वे कितने भाग का आहार करते हैं, कितने भाग का आस्वादन करते हैं ? क्या वे ग्रहण किये हुए सभी पुद्गलों का आहार करते है ? गृहीत आहार्य-पुद्गलों को वे किस रूप में परिणत करते हैं ? क्या वे एकेन्द्रियादि के शरीर का आहार करते हैं ? तथा उनमें से कौन लोमाहरी है, कौन प्रक्षेपाहरी (कवलाहारी) है तथा कौन ओज-आहारी है, कौन मनोभक्षी है ? ये और इनसे सम्बन्धित आहार-सम्बन्ध चर्याएँ इस पद के दो उद्देशकों में से प्रथम उद्देशक में की गई हैं। इसके अतिरिक्त आहार सम्बन्धी कई प्रश्न अवशिष्ट रह जाते हैं कि एक या अनेक जीव या चौबीस दण्डकवर्ती सभी जीव आहारक ही होते हैं या कोई जीव अनाहारक भी होता है/होते हैं ? यदि कोई जीव किसी अवस्था में अनाहारक होता है तो किस कारण से होता है ?' इन दो प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में भव्यता, संज्ञा, लेश्या, दृष्टि, संयम, कषाय, ज्ञान-अज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर, पर्याप्ति, इन १३ द्वारों के मध्याम से आहारक-अनाहारक की सांगोपांग चर्चा द्वितीय उद्देशक में की गई है। प्रथम उद्देशक के उत्तरों को देखते हुए बहुत से रहस्यमय एवं गूढ तथ्य साधक के समक्ष समाधान के रूप में मुखरित होते हैं। जैसे कि वैक्रियशरीरधारी का आहार अचित्त ही होता है और औदारिकशरीरधारी का आहार सचित्त, अचित्त, और मिश्र तीनों प्रकार का होता है । जो आहार ग्रहण किया जाता है, वह दो प्रकार का
है - आभोगनिर्वर्तित और अनाभोगनिर्वर्तित । अपनी इच्छा हो और आहार लिया जाए, वह आभोगनिर्वर्तित १. पण्णवणासुत्तं भा. १, पृ. ३९२