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[अट्ठाईसवाँ आहारपद] तिफासाइं आहारेंति, चउफासाइं आहारेंति जाव अट्ठफासाई पि आहारेंति, विहाणमग्गणं पडुच्च कक्खडाई पि आहारेंति जाव लुक्खाई पि।
[१८००-१] भाव से जिन स्पर्शवाले पुद्गलों का आहार करते हैं, वे न तो एकस्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं,न दो और न तीन स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं, अपितु चतुःस्पर्शी अष्टस्पर्शी पुद्गलों का आहार करते हैं। विधान (भेद) मार्गणा की अपेक्षा वे कर्कश यावत् रूक्ष पुद्गलों का भी आहार करते हैं।
[२] जाई फासओ कक्खडाई आहारेंति ताई कि एगगुणकक्खडाई आहारेंति जाव अणंतगुणकक्खडाइं आहारेंति। ___गोयमा! एगगुणकक्खडाई पि आहारेंति जाव अणंतगुणकक्खडाई पि आहारेंति? एवं अट्ठवि फासा भाणियव्वा जाव अणंतगुणलुक्खाई पि आहारेति।
[१८००-२ प्र.] भगवन् ! वे जिन कर्कशस्पर्शवाले पुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे एकगुण कर्कशपुद्गलों का आहार करते हैं, यावत् अनन्तगुण कर्कशपुद्गलों का आहार करते हैं ?
[१८००-२ उ.] गौतम ! वे एकगुण कर्कशपुदगलों का भी आहार करते हैं यावत् अनन्तगुण कर्कशपुद्गलों का भी आहार करते हैं। इसी प्रकार क्रमशः आठों ही स्पर्शों के विषय में अनन्तगुण रूक्षपुद्गलों का भी आहार करते हैं तक (कहना चाहिए)।
[३] जाइं भंते! अणंतगुणलुक्खाइं आहारेति ताई कि पुट्ठाई आहारेंति अपुट्ठाई आहारैति?
गोयमा! पुट्ठाई आहारेंति, णो अपुट्ठाइं आहारेंति, जहा भासुद्देसए (सु . ८७७ [ १५-२३ ]) आव णियमा छद्दिसिं आहारेंति।
[१८००-३ प्र.] भगवन् ! वे जिन अनन्तगुण रूक्षपुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे स्पृष्ट पुद्गलों का आहार करते हैं या अस्पृष्ट पुद्गलों का आहार करते हैं ?
[१८००-३ उ.] गौतम! वे स्पृष्ट पुद्गलों का आहार करते हैं, अस्पृष्ट पुद्गलों का नहीं। (सू. ८७७-१५-२३ में उक्त) भाषा-उद्देशक में जिस प्रकार कहा है, उसी प्रकार वे यावत् नियम से छहों दिशाओं में से आहार करते हैं।
१८०१. ओसण्णकारणं पडुच्च वण्णओ काल-नीलाई गंधओ दुब्भिगंधाइं रसतो तित्तरस कडुयाई फासओ कक्खड-गरूय-सीय-लुक्खाइंतेसिं पोराणे वण्णगुणे गंधगुणे फासगुणे विप्परिणामइत्ता परिपीलइत्ता परिसाडइत्ता परिविसइत्ता अण्णे अपुव्वे वण्णगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे उप्पाएत्ता आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले सव्वप्पणयाए आहारमाहारेंति।
[१८०१] बहुल कारण की अपेक्षा से जो वर्ण से काले-नीले, गन्ध से दुर्गन्ध वाले, रस से तिक्त (तीखे) और कटुक (कडुए) रस वाले और स्पर्श से कर्कश, गुरु (भारी), शीत (ठंडे) और रूक्ष स्पर्श हैं, उनके पुराने (पहले के) वर्णगुण, गन्धगुण, रसगुण और स्पर्शगुण का विपरिणमन (परिवर्तन) कर, परिपीडन परिशाटन और परिविघ्वस्त करके अन्य (दूसरे) अपूर्व (नये) वर्णगुण, गन्धगुण, रसगुण और स्पर्शगुण को उत्पन्न करके अपने शरीरक्षेत्र में