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[चौवीसवाँ कर्मबन्धपद] मोहनीय आदि कर्मों के बन्ध के साथ अन्य कर्मप्रकृतियों के बन्ध का निरूपण
१७६६. मोहणिज बंधमाणे जीवे कति कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा! जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। जीवेगिंदिया सत्तविहबंधगा वि अट्ठविहबंधगा वि। [१७६६. प्र.] भगवन् ! मोहनीय कर्म बांधता जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधता है ?
[१७६६ उ.] गौतम! सामान्य जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहना चाहिए। जीव और एकेन्द्रिय सप्तविधबन्धक भी और अष्टविधबन्धक भी होते हैं।
१७६७.[ १ ] जीवे णं भंते! आउअं कम्मं बंधमाणे कति कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा! णियमा अट्ठ। एबं णेरइए जाव वेमाणिए। [१७६७-१ प्र.] भगवन् ! आयुकर्म को बांधता जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधता है?
[१७६७-१ उ.] गौतम! नियम से आठ प्रकृतियाँ बाँधता है। नैरयिकों से लेकर वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों में इसी प्रकार कहना चाहिये।
[२] एवं पुहत्तेण वि। [२] इसी प्रकार बहुतों के विषय में भी कहना चाहिए। १७६८. [१] णाम-गोय-अंतरायं बंधमाणे जीवे कति कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा! जाओ णाणावरणिजं बंधमाणे बंधइ ताहिं भाणियव्वो। [१७६८-१ प्र.] भगवन् ! नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म को बाँधता जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधता है ?
[१७६८-१ उ.] गौतम! ज्ञानावरणीय को बाँधने वाला जिन कर्मप्रकृतियों को बांधता है, वे ही यहाँ कहनी चाहिए।
[२] एवं णेरइए वि जाव वेमाणिए। [१७६८-२] इसी प्रकार नारक से लेकर वैमानिक तक कहना चाहिए । [३] एवं पुहत्तेण वि भाणियव्वं । [१७६८-३] इसी प्रकार बहुवचन में भी समझ लेना चाहिए।
पण्णवणाए भगवतीए चउवीसइमं कम्मबंधपदं समत्तं॥ विवेचन - वेदनीय कर्मबन्ध के समय अन्य प्रकृतियों का बन्ध -- वेदनीय बन्ध के साथ कोई जीव सात का कोई आठ का और कोई छह का बंधक होता है, उपशान्तमोह आदि वाला कोई एक ही प्रकृति का बन्धक