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[छब्बीसवाँ कर्मवेदबन्धपद]
उपशान्तमोह और क्षीणमोहगुणस्थानवी जीव वेदनीयकर्म का वेदन करते हुए केवल एक वेदनीय प्रकृति का बन्ध करते हैं, क्योंकि सयोगीकेवली में भी वेदनीयकर्म का उदय और बंध पाया जाता है। अयोगीकेवली अबन्धक होते हैं। उनमें वेदनीयकर्म का वेदन होता है, किन्तु योगों का भी अभाव हो जाने से उसका या अन्य किसी भी कर्म का बन्ध नहीं होता। ___ (२) मनुष्य के सिवाय नारक से वैमानिक तक-वेदनीयकर्म का वेदन करते हुए ७ या ८ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं। (३) बहुत से जीव - तीन भंग - सभी ब. ब. ब. ए. | ब. ब. ब. ब. = तीन भंग
७८१ ७ ८ १६ ७ ८ १ ६ | अबंधक के साथ एकत्व - बहुत्व की अपेक्षा – दो भंग (एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा) अथवा ब. ब. ब. ए. ए.
७ ८ १ ६ अबं. = ४ भंग = कुल ९ भंग समुच्चय जीवों के एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा । (४) एकेन्द्रिय जीव – कोई विकल्प नहीं । बहु. और बहु. के बंधक होते हैं।
(५) मनुष्य को छोड़कर नारक से वैमानिक तक पूर्ववत् तीन भंग।
(६) मनुष्य - (एकत्व या बहुत्व की अपेक्षा) २७ भंग (ज्ञानावरणीयकर्म - बन्धवत्) आयुष्य, नाम और गोत्र कर्म के सम्बन्ध में वेदनीय कर्मवत्। आयुष्यादि कर्मवेदन के समय कर्मप्रकृतियों के बन्ध की प्ररूपणा
१७८५. एवं जहा वेदणिजं तहा आउयं णामं गोयं च भाणियव्वं।
[१७८५] जिस प्रकार वेदनीयकर्म के वेदन के साथ कर्मप्रकृतियों के बन्ध का कथन किया गया है, उसी प्रकार आयुष्य, नाम और गोत्र कर्म के विषय में भी कहना चाहिए।
१७८६. मोहणिजं वेदेमाणे जहा बंधे णाणावरणिजं तहा भाणियव्वं (सु. १७५५-६१)।
[१७८६] जिस प्रकार (सू. १७५५-६१ में) ज्ञानावरणीय कर्मप्रकृति के बन्ध का कथन किया है, उसी प्रकार यहाँ मोहनीयकर्म के वेदन के साथ बन्ध का कथन करना चाहिए।
॥पण्णवणाए भगवईए छव्वीसइमं कम्मवेयबंधपयं समत्तं ॥ विवेचन - मोहनीयकर्मवेदन के साथ कर्मबन्ध - ज्ञानावरणीय के समान अर्थात् - मोहनीय कर्म का
१. (क) प्रज्ञापना, (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ५१३ से ५१७ तक
(ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति. (अभिधानराजेन्द्रकोष भा. ३) पद २६, पृ. २९६ (ग) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मू. पा. टि.) पृ. ३९०