Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ प्रज्ञापनासूत्र ]
हैं और उत्कृष्टत: भी उतने ही काल का बन्ध करते हैं।
[२] पुरिसवेदस्स जहणणेणं अट्ठ संवच्छराई, उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडीओ; दस य वाससयाई अबाहा० ।
[२] पुरुषवेद का बन्ध वे जघन्य आठ वर्ष का और उत्कृष्ट दशकोटाकोटी सागरोपम का करते हैं। उनका अबाधाकाल दस सौ (एक हजार) वर्ष का है, इत्यादि पूर्ववत् ।
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[ ३ ] जसोकित्तिणामए उच्चागोयस्स य एवं चेव । णवरं जहण्णेणं अट्ठ मुहुत्ता ।
[१७३९-३] यशःकीर्तिनाम और उच्चगोत्र का बन्ध भी इसी प्रकार (पुरुषवेदवत् ) जानना चाहिए । विशेष यह है कि संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों का जघन्य स्थितिबन्ध (काल) आठ मुहूर्त का है।
१७४०. अंतराइयस्स जहा णाणावरणिजस्स ।
[१७४०] अन्तरायकर्म का बन्धकाल ज्ञानावरणीयकर्म के (बन्धकाल के) समान है।
१७४१. सेसएसु सव्वेसु ढाणेसु संघयणेसु वण्णेसु गंधेसु य जहण्णेणं अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ, उक्कोसेणं जा जस्स ओहिया ठिती भाणिया तं बंधंति, णवरं इमं णाणात्तं वुच्चति । एवं आणुपुव्वीए सव्वेसिं जाव अंतराइयस्स ताव भाणियव्वं ।
अब बाहूणियाण
[१७४१] शेष सभी स्थानों में तथा संहनन, संस्थान, वर्ण, गन्ध नामकर्मों में बन्ध का जघन्य काल अन्तः कोटाकोटि सागरोपम का है और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का काल, जो इनकी सामान्य स्थिति कही है, वही कहना चाहिए । विशेष अन्तर यह है कि इनका अबाधाकाल और अबाधाकालन्यून (कर्मनिषेककाल) नहीं कहा जाता ।
इसी प्रकार अनुक्रम से सभी कर्मों का अन्तरायकर्म तक का स्थितिबन्धकाल कहना चाहिए।
विवेचन - कुछ स्पष्टीकरण – संज्ञीपंचेन्द्रिय बन्धक की अपेक्षा से ज्ञानावरणीयादि कर्मों का जो जघन्य स्थितिबन्धकाल कहा गया है, वह क्षपक जीव को उस समय होता है, जब उन कर्म-प्रकृतियों के बन्ध का चरम समय हो । निद्रापंचक, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, कषायद्वादश आदि का बन्ध क्षपण से पहले होता है, अतएव उनका जघन्य और उत्कृष्ट बन्ध भी अन्तः कोटाकोटि सागरोपम का होता है, जो अत्यन्त संक्लेशयुक्त मिथ्यादृष्टि समझना चाहिए। चारों प्रकार के आयुष्यकर्म का उत्कृष्ट बन्ध उन-उनके बन्धकों में जो अतिविशुद्ध होते हैं, उनको होता है ।
कर्मों के जघन्य स्थितिबन्धक की प्ररूपणा
१७४२. णाणावरणिजस्स णं भंते! कम्मस्स जहण्णठितिबंध के ?
गोयमा! अण्णयरे सुहुमसंपराए उवसामए वा खवए वा, एस णं गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स
१. प्रज्ञापनासूत्र भाग ५, (प्रमेयबोधिनी टीका) पृ. ४३३- ४३४