Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद ]
हो, सम्यग्दृष्टि हो, शुक्ललेश्यावाली हो, तत्प्रयोग्य विशुद्ध होते हुए परिणाम वाली हो, हे गौतम! इस प्रकार की मनुष्य- स्त्री उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले आयुष्यकर्म को बांधती है।
१७५३. अंतराइयं जहा णाणावरणिज्जं ( १७४५-४७ ) ।
[ १७५३] उत्कृष्ट स्थिति वाले अन्तरायकर्म के बंध के विषय में (सू. १७४५-४७ में उक्त) ज्ञानावरणीयकर्म के समान जानना चाहिए।
[ बीओ उद्देसओ समत्तो ]
॥ पण्णवणाए भगवतीए तेवीसइमं कम्मे त्ति पदं समत्तं ॥
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विवेचन – निष्कर्ष – आयुकर्म को छोडकर शेष सातों उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्मों को पूर्वोक्त विशेषता वाले नारक, तिर्यञ्च तिर्यञ्चनी, मनुष्य, मानुषी, देव या देवी बांधती है । उत्कृष्ट स्थिति वाले आयुष्कर्म को तिर्यञ्च, मनुष्य और मानुषी बांधती है, किन्तु नारक, तिर्यञ्चिनी, देव और देवी नहीं बांधती, क्योंकि इन चारों के उत्कृष्ट आयुकर्म का बन्ध नहीं होता ।
कठिन शब्दार्थ - कम्मभूमिगपलिभागी – जो कर्मभूमि में जन्मे हुए के समान हो । अर्थात् कर्मभूमिजा गर्भिणी तिर्यञ्चनी का अपहरण करके किसी ने यौगलिक क्षेत्र में रख दिया हो और उससे जो जन्मा हो ऐसा तिर्यञ्च । सागारे – साकारोपयोग वाला। सुतोवउत्ते - श्रुत (शास्त्र) में उपयोग वाला। सुक्कलेस्से - शुक्ललेश्यी । तप्पाउग्गविसुज्झमाण-परिणामे – उसके योग्य विशुद्ध परिणाम वाला हो।
॥ दूसरा उद्देशक समाप्त ॥
॥ प्रज्ञापना भगवती का तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद सम्पूर्ण ॥
१. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. ३८३ - ३८४
(ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ४५९ से ४५६ तक