Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
[प्रज्ञापनासूत्र]
[३७ शरीर में वर्णो का जनक हो, वह वर्ण-नामकर्म है। इसके भी ५ भेद होते हैं।
(१०) गन्ध-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से शरीर में अच्छी या बुरी गंध हो अर्थात् शुभाशुभ गंध का कारण भूत कर्म गन्धनामकर्म है।
(११) रस-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से शरीर में तिक्त, मधुर आदि शुभ-अशुभ रसों की उत्पत्ति हो, अर्थात् यह रसोत्पादन में निमित्त कर्म है।
(१२) स्पर्श-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से शरीर का स्पर्श कर्कश, मृदु, स्निग्ध, रूक्ष आदि हो, अर्थात् स्पर्श का जनक कर्म स्पर्श-नामकर्म हैं।
(१३) अगुरुलघु - नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीवों के शरीर न तो पाषाण के समान गुरु (भारी हों और न ही रूई के समान लघु (हल्के) हों, वह अगुरुलघुनामकर्म है।
(१४) उपघात-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से अपना शरीर अपने ही अवयवों से उपहत – बाधित होता है, वह उपघातनामकर्म कहलाता है। जैसे – चोरदन्त, प्रतिजिह्वा (पडजीभ) आदि । अथवा स्वयं तैयार किये हुए उद्बन्ध (फांसी), भृगुपात आदि से अपने ही शरीर को पीडित करने वाला कर्म उपघातनामकर्म है।
(१५) पराघात-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से दूसरा प्रतिभाशाली, ओजस्वी, तेजस्वी जन भी पराजित या हतप्रभ हो जाता है, दब जाता है, उसे पराघातनामकर्म कहते हैं।
(१६) आनुपूर्वी-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव दो, तीन या चार समय प्रमाण विग्रहगति से कोहनी, हल या गोमूत्रिका के आकार से भवान्तर में अपने नियत उत्पत्तिस्थान पर पहुंच जाता है, उसे आनुपूर्वीनामकर्म कहते हैं।
(१७) उच्छ्वास-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से जीव को उच्छ्वास - निःश्वासलब्धि की प्राप्ति होती है, वह उच्छ्वासनामकर्म है।
(१८) आतप-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर स्वरूप से उष्ण न होकर भी उष्णरूप प्रतीत होता हो, अथवा उष्णता उत्पन्न करता हो, वह आतपनामकर्म कहलाता है।
(१९) उद्योत-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से प्राणियों के शरीर उष्णतारहित प्रकाश से युक्त होते हैं, वह उद्योतनांमकर्म है। जैसे - रत्न, औषधि, चन्द्र, नक्षत्र, तारा विमान आदि ।
(२०) विहायोगति-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से जीव की चाल (गति) हाथी, बैल आदि की चाल के समान शुभ हो अथवा ऊँट, गधे आदि की चाल के समान अशुभ हो, उसे विहायोगतिनामकर्म कहते हैं।
(२१) त्रस-नामकर्म - जो जीव त्रास पाते हैं, गर्मी आदि से संतप्त होकर छायादि का सेवन करने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं, ऐसे द्वीन्द्रियादि जीव त्रस कहलाते हैं। जिस कर्म के उदय से त्रस-पर्याय की प्राप्ति हो वह त्रसनामकर्म है।
(२२) स्थावर-नामकर्म - जो जीव सर्दी, गर्मी आदि से पीड़ित होने पर भी उस स्थान को त्यागने में