Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
५४]
[२] णीयागोयस्स पुच्छा।
गोमा ! जहा अपसत्थविहायगतिणामस्स ।
[१७०३-२प्र.] भगवन् ! नीचगोत्रकर्म की स्थिति सम्बन्धी प्रश्न है ।
[ १७०३ - २उ.] गौतम! अप्रशस्तविहायोगति नामकर्म की स्थिति के समान इसकी स्थिति है ।
१७०४. अंतराइयस्स णं पुच्छा ।
गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, तिणि य वाससहस्साई अबाहा, अबाहूणिया कम्मठिती कम्मणिसेगे ।
[१७०४ प्र.] भगवन्! अँन्तरायकर्म की स्थिति कितने काल की कही गई है ?
[ १७०४ उ.] गौतम! इसकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागरोपम है तथा इसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है एवं अबाधाकाल कम करने पर शेष कर्मस्थिति कर्मनिषेककाल
है।
[ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद ]
-
विवेचन प्रस्तुत प्रकरण के (सू. १६९७ से १७०४ तक) में ज्ञानावरणीय से लेकर अन्तरायकर्म तक (उत्तरकर्मप्रकृतियों सहित) की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का निरूपण किया गया है। साथ ही अपृष्ट प्रश्न के व्याख्यान के रूप में इन सब कर्मों के अबाधाकाल तथा निषेककाल के विषय में भी कहा गया है।
स्थिति ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों और उनके भेद-प्रभेद सहित सभी कर्मों के अधिकतम और न्यूनतम समय तक आत्मा के साथ रहने के काल को स्थिति कहते हैं। इसे ही कर्मसाहित्य में स्थितिबन्ध कहा जाता है।
--
कर्म की उत्कृष्ट स्थिति को कर्मरूपतावस्थानरूप स्थिति कहते हैं ।
अबाधाकाल
-
• कर्म बंधते ही अपना फल देना प्रारम्भ नही कर देते, वे कुछ समय तक ऐसे ही पडे रहते हैं। अतः कर्म बंधने के बाद अमुक समय तक किसी प्रकार के फल न देने की (फलहीन ) अवस्था को अबाधाकाल कहते हैं। निषेककाल बन्धसमय से लेकर अबाधाकाल पूर्ण होने तक जीव को वह बद्ध कर्म कोई बाधा नहीं पहुँचाता, क्योंकि इस काल में उसके कर्मदलिकों का निषेंक नहीं होता, अतः कर्म की उत्कृष्ट स्थिति में से अबाधाकाल को कम करने पर जितने काल की उत्कृष्ट स्थिति रहती है, वह उसके कर्मनिषेक का (कर्मदलिक- निषेकरूप) काल अर्थात् - अनुभवयोग्यस्थिति का काल कहते हैं ।
साथ में दिये रेखाचित्र में प्रत्येक कर्म की जघन्य - उत्कृष्ट स्थिति एवं अबाधाकाल व निषेककाल का अंकन है । रेखाचित्र ( प्रारूप) इस प्रकार है
१. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ -टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. ३७१ से ३७७ तक
२. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. ५, पृ. ३३६-३३७
(ख) कर्मग्रन्थ भाग १, पृ. ६४-६५