Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ प्रज्ञापनासूत्र]
[३३ स्वाभाविक सुखानुभूति होती है वह कर्मोदय से नहीं होती। इसका स्वभाव तलवार की शहद-लगी धार को चाटने के समान है। इसके मुख्य दो प्रकार है – (१) सातावेदनीय - जिस कर्म के उदय से आत्मा को इन्द्रियविषयसम्बन्धी सुख का अनुभव हो, उसे सातावेदनीयकर्म कहते हैं । (२) असातावेदनीय – जिस कर्म के उदय से आत्मा को अनुकूल विषयों की अप्राप्ति और प्रतिकूल इन्द्रियविषयों की प्राप्ति में दुःख का अनुभव हो, उसे असातावेदनीय कहते हैं । सातावेदनीय के मनोज्ञ शब्द आदि आठ भेद हैं और इसके विपरीत असातावेदनीय के भी अमनोज्ञ शब्द आदि आठ भेद हैं। इनका अर्थ पहले लिखा जा चुका है।
(४) मोहनीयकर्म- जिस प्रकार मद्य के नशे में चूर मनुष्य अपने हिताहित का भान भूल जाता है, उसी प्रकार जिस कर्म के उदय से जीव में अपने वास्तविक स्वरूप एवं हिताहित को पहचानने और परखने की बुद्धि लुप्त हो जाती है, कदाचित् हिताहित को परखने की बुद्धि भी आ जाए तो भी तदनुसार आचरण करने का सामर्थ्य प्राप्त नहीं हो पाता, उसे मोहनीयकर्म कहते हैं। इसके मुख्यतः दो भेद हैं - दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीय - जो पदार्थ जैसा है, उसे यथार्थरूप में वैसा ही समझना, तत्त्वार्थ पर श्रद्धान करना दर्शन कहलाता है, आत्मा के इस निजी दर्शनगुण का घात (आवृत) करने वाले कर्म को दर्शनमोहनीय कहते हैं । चारित्रमोहनीयआत्मा के स्वभाव की प्राप्ति अथवा उसमें रमणता करना चारित्र है अथवा सावद्ययोग से निवृत्ति तथा निरवद्ययोग में
परिणाम चारित्र है। आत्मा के इस चारित्रगण को घात करने या उत्पन्न न होने देवे वाले कर्म को चारित्रमोहनीय कहते हैं।
दर्शनमोहनीयकर्म के तीन भेद हैं-सम्यक्त्ववेदनीय, मिथ्यात्ववेदनीय और अम्यग्मिथ्यात्ववेदनीय। इन्हें क्रमशः शुद्ध, अशुद्ध और अर्द्धशुद्ध कहा गया है। जो कर्म शुद्ध होने से तत्त्वरुचिरूप सम्यक्त्व में बाधक तो न हो, किन्तु आत्मस्वभावरूप औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होने देता, जिससे सूक्ष्म पदार्थों का स्वरूप विचारने में शंका उत्पन्न हो, सम्यक्त्व में मलिनता आ जाती हो, चल, मल, अगाढदोष उत्पन्न हो जाते हों, वह सम्यक्त्ववेदनीय (मोहनीय) है। जिसके उदय से जीव को तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप की रुचि ही न हो, अर्थात्-तत्त्वार्थ के अश्रद्धान के रूप में वेदा जाए उसे मिथ्यात्वमोहनीय कहते हैं। जिस कर्म के उदय से जीव को तत्त्व (यथार्थ) के प्रति या जिनप्रणीत तत्त्व में रुचि व अरुचि अथवा श्रद्धा या अश्रद्धा न होकर मिश्रस्थिति रहे, उसे सम्यक्त्व-मिथ्यात्ववेदनीय (मोहनीय) या मिश्रमोहनीय कहते हैं।
(५) चारित्रमोहनीयकर्म : भेद और स्वरूप- चारित्रमोहनीयकर्म के मुख्य दो भेद हैं – कषायवेदनीय (मोहनीय) और नोकषायवेदनीय (मोहनीय)। कषायवेदनीय - जो कर्म क्रोध, मान, माया और लोभ के रूप में वेदा जाता हो, उसे कषायवेदनीय कहते हैं। कषाय का लक्षण विशेषावश्यक भाष्य में इस प्रकार कहा गया है - जो आत्मा के गुणों को कषे-नष्ट करे अथवा कष यानी जन्म-मरणरूप संसार, उसकी आय अर्थात् प्राप्ति जिससे हो, उसे कषाय कहते हैं । कषाय के क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चार भेद हैं । क्रोध – समभाव को भूल कर आक्रोश से भर जाना, दूसरे पर रोष करना। मान - गर्व, अभिमान या झूठा आत्मप्रदर्शन। माया – कपटभाव अर्थात्-विचार और प्रवृत्ति १. (क) कर्मग्रन्थ भाग १, (मरुधरकेसरीव्याख्या), पृ. ६५-६६
(ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. ५, पृ. २४२